"मंगल की बात और है, लेकिन मुझे हर दिन का समझ नहीं आता", बेटे को समझने की असमर्थता दर्शाते हुए माँ बोली।
(अपनी चुप्पी साधे बैठे रहने की आदत का उल्लंघन न करते हुए आज भी उसने कोई जवाब नही दिया, एक अरसा होने को चला)।
'उम्मीदों और आशाओं में गुज़ारा करना फितरत बन गई है', इन आदतों ने भी कुछ ऐसा घेरा कि कब ये नशे का रूप धारण करती गई, खबर नहीं।
खुद को दिलासा देने के लिए इन तमाम आदतों को पाला हुआ है या वाकई कोई जवाब भी आता है? क्या इन सब सवालों के जवाब से वो आज भी अनजान है या सब कुछ जानते हुए भी स्वीकार इसलिए नहीं करता क्योंकि वो आज भी इस डर से बाहर नहीं निकल पाया है कि हां अब वो नहीं हैं?
रोज़ाना शाम सात बजे पाँच लफ्ज़ लिख एक चिट्ठी शिव चौक पे लगी डाक पेट्टी में डाल आता है और साल भर से भोलाराम का इंतज़ार कर रहा है। भोलाराम की पिछले ही साल डाकिया घर मे नौकरी लगी थी।
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20-10-2018
Rahul Khandelwal

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