Friday, March 26, 2021

'उम्मीदों और आशाओं में गुज़ारा करना फितरत बन गई है', इन आदतों ने भी कुछ ऐसा घेरा कि कब ये नशे का रूप धारण करती गई, खबर नहीं।


वापस आते वक्त तरकारी लेने लगा, इसलिए आधा घंटा देर से पहुँचा नही तो ठीक साढ़े सात बजे आ जाया करता था। मंगल बाज़ार में चार पैसे जो बच जाते, बाकी दिन तो मुहल्लों में भाजीवाले आते ही थे।

"मंगल की बात और है, लेकिन मुझे हर दिन का समझ नहीं आता", बेटे को समझने की असमर्थता दर्शाते हुए माँ बोली।

(अपनी चुप्पी साधे बैठे रहने की आदत का उल्लंघन न करते हुए आज भी उसने कोई जवाब नही दिया, एक अरसा होने को चला)।

'उम्मीदों और आशाओं में गुज़ारा करना फितरत बन गई है', इन आदतों ने भी कुछ ऐसा घेरा कि कब ये नशे का रूप धारण करती गई, खबर नहीं।

खुद को दिलासा देने के लिए इन तमाम आदतों को पाला हुआ है या वाकई कोई जवाब भी आता है? क्या इन सब सवालों के जवाब से वो आज भी अनजान है या सब कुछ जानते हुए भी स्वीकार इसलिए नहीं करता क्योंकि वो आज भी इस डर से बाहर नहीं निकल पाया है कि हां अब वो नहीं हैं?

रोज़ाना शाम सात बजे पाँच लफ्ज़ लिख एक चिट्ठी शिव चौक पे लगी डाक पेट्टी में डाल आता है और साल भर से भोलाराम का इंतज़ार कर रहा है। भोलाराम की पिछले ही साल डाकिया घर मे नौकरी लगी थी।


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20-10-2018

Rahul Khandelwal

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