“लोगों के सिवा भी सामाजिक परिवेश में बहुत कुछ निहित होता है जो उस बनते-बिगड़ते परिवेश में कारक का काम करता है। महत्वपूर्ण बात (विडंबना भी कह सकते है) यह है कि जिस किसी समाज में रहने वाले लोग तमाम तरह के अनुभव और अवलोकन के आधार पर तमाम प्रकार की धारणाओं, दृष्टिकोणों की व्याख्या कर, उन्हें जन्म देते है; बाद में वहीं, उसी समाज में रहने वाले लोग ख़ुद भी इन सबसे इस क़दर प्रभावित हो जाते है कि अपने ही द्वारा किए गए सरलीकरण को अंतिम सत्य मानने के लिए बाध्य हो जाते है और ये भूल जाते है कि ये सब कृत्रिम है। सरलीकरण का आधार बहुसंख्यक ज़रूर होता है, लेकिन उसी को अंतिम सच मान लेना मूर्खता करने के समान है क्योंकि उसके आधार में सब कुछ या हर कोई शामिल नहीं होता।"
यही सब को लिखते-लिखते, उसे, अतीत में बीती उन घटनाओं ने घेर लिया जो उसके लेखन को बाकी लेखकों की तरह आधार प्रदान करती है। उसने गौर से ध्यान दिया तो बात और भी स्पष्ट होती चली गई, जो कुछ इस प्रकार थी और वो फिरसे सोचने लगा-
यह सब उसके लिए प्राकृतिक प्रक्रिया है कि जब वो किसी नए पड़ाव का हिस्सा बनता है, तो नए लोगों से भी मिलना होता है, ये ज़ाहिर-सी बात है। और उसी प्रक्रिया में समय गुज़रने के साथ, वो एक-दूसरे से परिचित होकर परत दर परत खुलना शुरू कर देता है। अपनी विशेषताओं से संबंधित जानकारियां साझा करते हुए कुछ लोग उन्हें अपनी “ताक़त और कमज़ोरी” के वर्गीकरण में बांटकर नहीं बताते या अगर अनजाने में बता भी देते है तो उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि इसका फ़ायदा भी उठाया जा सकता है। क्योंकि विशेषताओं का वर्गीकरण अगर आप नहीं करते है (या अगर अनजाने में कर भी देते है), तो समाज में रहने वाले लोग (ख़ासतौर से वे लोग, जो जानकारियां हासिल करते हुए, आपसे, उन्हें किसी दूसरे के साथ ना साझा करने का वायदा भी करते है) उनका वर्गीकरण जानबूझकर करते है और तदानुसार आपके साथ व्यवहार भी करते है। मनुष्य व्यवहार का एक कटु सत्य यह भी है। इसे स्वीकारे और सतर्क रहें।
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19-11-2023
Rahul Khandelwal
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