वो सवाल नहीं था, खीज थी उन माता-पिता के लिए जिन्होंने कभी तेरह की उम्र में चौखट की देहली पार करने पर रोक लगा दी थी कि आज और आज से विद्दा को नहीं बल्कि बासनों (बर्तनों) को तुम्हारी ज़्यादा ज़रूरत है। कुर्सी पर बैठा था और मुँह पीछे की तरफ़ था जब आप अपनी व्यथा और उसके कारण आई अनंत असमर्थताओं का वर्णन कर रही थी। पता नहीं वे सवाल थे या कही गई मन की बात जिसने पल भर के लिए मेरे सामने कई सवाल खड़े कर दिए। आज हम ऐसे सिस्टम से घिरे हुए है जहाँ हम अपने विचारों को भूलकर हर दूसरे देश और उसकी संस्कृतियां और तहज़ीबों को आए दिन स्वीकार करते चले जा रहे है। जब भाषा लोगों को दर्जों में विभाजित करने लगे तो इंसान की मानसिकता पर गहरी चोट पड़ती हैं और साथ ही साथ उसके ख़ुद के लिए अनेक सवाल उठ खड़े होते है और ख़ासकर तब जब अपने ही उन्हें ये महसूस कराने लगे कि हमारी भाषा आपकी भाषा के मुक़ाबले अव्वल दर्जे की है। शायद मैं समझ पाता हूँ कि क्यूँ देश के दूर-दराज अनुसूचित क्षेत्रों में रह रहे लोग अपने लिए भाषा के आधार पर नए राज्यों की माँग करते है। जहाँ अपने कल्चर को छोड़कर परदेसी कल्चर को अपनाया जाएगा वहाँ ऐसे क्षेत्रों का जन्म लेना तय है।
और रही बात माँ की तो उनसे हमने कहा कि जब अंग्रेज़ी का कोई शब्द समझ ना आए तो ख़ुद पर ग़ुस्सा ना करे, जो भाषा समझ आती है उसे सीखिए। इसमें शर्म कैसी।
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19-10-2021
Rahul Khandelwal
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