Saturday, February 8, 2025

तलाश


बाहरी शोर की फितरत है

परतों में तब्दील होते चले जाना

चेहरे के लिए एक नया कृत्रिम नकाब बन जाना

ढक लेती हैं ये धुंधली परतें फिर

तुम्हें, तुम्हारे 'स्व' को और सत्य को भी


सदियों से निरंतर कोई पुकार रहा है तुम्हें

तुम अपने ही 'अंश' की आवाज़ से अंजान क्यों हो?

क्या तुम नहीं जानते

कि विस्मृति शून्य की ओर ले जाती है

जहां से 'भूल' दोहराने की प्रक्रिया आरंभ होती है


तुम कैसे भुला सकते हो

कि न्याय की सबसे बड़ी अदालत तो वही है

झूठ के लिए जहां कोई स्थान नहीं—

तुम्हारा 'अंतर्मन'


अनसुनी गुहार को रोशनियाँ निगल गई हैं 

उस ओर जाती राह का पता अब तुम खो चुके हो

क्या अब भी तुम्हारे कानों को

चुप्पी की चीख सुनाई नहीं देती?

हाय! तुम पर दया आती है

कि तुम इन सबसे अंजान हो


स्मृतियों को ओझल होता देख

अतीत लगातार रो रहा है, आंसू झर रहे हैं 

कि अब अवस्थाएं बदल गई हैं 

पहले तुम ख़ुद को नियंत्रित करते थे

और अब महाख्यानों ने तुम्हें घेर लिया हैं 

तुम्हें अंधेरा चाहिए एक नए उजाले के लिए

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08-02-2025

Rahul Khandelwal 


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