मेरा बुरा, अच्छा समय तुमसे बाँटा है हर दफ़ा। जब बिलखते मन ने उसकी दबी हुई बेचैनी को ले जाकर तुम्हारी झोली में गिर जाने की इजाज़त माँगी है, तुमने हर दफ़ा बेझिझक होकर फैलाया है उसे कि थोड़ा दर्द कम हो। तुम्हारी मेज़, उसपर बिखरा तुम्हारा सामान, मैं दिन में दो-चार बार समेट कर रख देता हूँ कि इस सब के बीच दरवाज़े के पीछे से मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है उसी थोड़े ग़ुस्से और उसमें मिली वो दबी हँसी के साथ। मैं नीचे वाले कमरे में अब ज़्यादा नहीं बैठता कि वहाँ जब खिड़की खोलता हूँ तो कमरे में छनती रोशनी अंधेरे को तो मिटा देती है पर तुम्हारी मेज़ के सामने रखी कुर्सी पर लिपटे अंधेरे को वो चाह कर भी अपने में समा नहीं पाती, अब उस कुर्सी पर अंधेरा बिखरा हुआ रहता है।
मेरे मन की व्यथाएँ इस आस में कि तुम हो यहाँ वो अलमारी में तह लगे कपड़ों में कभी-कभी तुम्हारे आँचल को ढूँढती है कि इसकी झोली बना इसमें गिरने की इजाज़त तुमसे माँग सके।
तुम्हारा इंतज़ार और याद दोनों करता हूँ। प्यार भेज रहा हूँ।
भाई।
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23-08-2021
Rahul Khandelwal
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