"कभी-कभी ऐसा लगता है कि समय का एक बहुत बड़ा अंतराल गुज़रकर भी ठहरा हुआ है। क्या इंसान के लिए कहीं किसी दूर स्थित अतीत की स्मृतियों को लांघ पाना संभव है, क्या हम कभी-भी उभर पाते है उनसे?
ये सब अवचेतना की बनने की प्रक्रिया का कब हिस्सा बनता चला जाता है कि हमें मालूम भी नहीं पड़ता कि कब हमारी अंतरात्मा एक प्रकार से कोष का रूप धारण कर लेती है उन सभी स्मृतियों के लिए, जिनका हाथ हम ये मानकर बहुत पहले छोड़ आए थे कहीं कि उनकी छाया हमारा पीछा कभी नहीं करेंगी। और आपको उनके होने का एहसास तब होता है, जब वो सभी स्मृतियां आपके अवचेतन मन से निकलकर समय-समय पर चेतना का हिस्सा बन आपके जीवन के गुज़रते हुए समय की चौखट पर दस्तक देती है।
मुझे लगता है- स्मृतियाँ, बारिश के बाद मिट्टी में जन्म लेने वाली अवांछित जड़ें जैसी होती है जिसके ना बीज बोयें जाते है, ना उनमें पानी दिया जाता है और ना खाद डाली जाती है।"
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02-03-24
Rahul Khandelwal
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