बैंगनी रंग का लिबास ओढ़े
दिसंबर के आखिरी दिन की स्मृतियाँ
आती है सालाना
दरवाज़े की सीढ़ियों तक
स्मृतियाँ नहीं देती हैं दस्तक
साथ आई लिबास में लिपटी गंध
कराती है बोध मुझे उनके आने का
मैं भरोसा रख किवाड़ खोल देता हूँ
जैसे खोला था स्व को उसके सामने तब
वास्तविक रूप में बिना झिझके
सभी ताकतों और कमज़ोरियों के साथ
नए साल की सुबह सालाना स्मृतियाँ
बिस्तर से उठ बिन किसी आहट के
धूप की किरणों से व्याप्त कमरे के फर्श से होते हुए
लौट जाती है एक बार
फिर से आने के लिए
छोड़ जाती हैं पीछे बस
चादर की सिलवटों में अपनी गंध
अगले साल तक के लिए
जैसे छोड़ गई थी कुछ तब
सदा के लिए
एहसास गंध का
सिर्फ़ चादर में ही नहीं बचा रहता
बनी रहती है याद उसकी
स्मृतियों में भी निरंतर
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01-01-2025
Rahul Khandelwal
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