कुछ उलझनों से जूझ रहा था मैं तब, जब पहली बार आपके पास आया था जैसे किसी चौराहे पर खड़ा होकर मौजूदा रास्तों से भाग रहा था (हूं), जिनके निर्माण के पीछे मेरी कुछ गलतियों का हाथ था, तो कुछ समकालीन अवस्थाओं का भी।
"कभी–कभी मनुष्य के स्वभाव को बाहरी परिस्थितियां इस हद तक प्रभावित कर देती है कि जिसके चलते ऐसा लगता है मानो वो बाहर से कोई और हो तो भीतर से कोई दूसरा ही (और भीतर वाले को वो छोड़ना भी नहीं चाहता)। ऐसी स्थिति में वो 'बाहरी निर्मित रूप' जिसके निर्माण को वो चाहकर भी रोक ना सका और भीतर के अपने 'मूल रूप' के द्वंद्व में फंसकर रह जाता है। वो कोशिश करता है कि दोनों के बीच संतुलन स्थापित कर सकें, परंतु उसके द्वारा किए जा रहें प्रयासों को उस समय की परिस्थितियों के समक्ष झुकना पड़ता है, लेकिन वो हार नहीं मानता, प्रयासरत रहता है।"
"कई बार उलझनों के जन्म लेने के पीछे का कारण सिर्फ़ संबंधित व्यक्ति नहीं होता, कारण संभवतः कुछ और भी हो सकता है। हां, बस वो उस समय उसका पूरा भार और दोष अपने पर डाल लेता है ताकि तत्कालीन परिस्थितियों से छुटकारा पा सकें क्योंकि तब (उस वक्त) उसे कोई दूसरा विकल्प तलाशने से भी नहीं मिलता।"
मैंने कई बार कोशिश की कि उन सभी उलझनों को वार्ता के ज़रिए आपसे साझा कर सकूं, इसीलिए मौका देखकर दो–तीन दफा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आपसे साझा भी किया। ऐसा नहीं था कि जवाब नहीं मिला, मैं खाली हाथ लौटा भी नहीं था। वो पाठ मुझे कंठस्थ थे जो आपसे मैंने सीखे थे और मैंने दी गई सीख की गांठ भी बांध ली थी।
"कई बार इंसान अपनी स्मृतियों को लांघ कर कोसों दूर निकल आता है, एक लंबा सफ़र तय करने पर भी स्मृतियों के कुछ अवशेष उसकी परछाई बनकर उसका पीछा कभी नहीं छोड़ते, अंतर्मन से सब कुछ मिटा देना सबके बस की बात भी नहीं।" इसीलिए समझदारी (और मैं नैतिकता भी इसी में समझता हूं) इसी में है कि वो अपने अतीत को स्वीकार कर आगे की यात्रा तय करें क्योंकि यहां कोई चौराहा नहीं है, सिर्फ आगे की ओर जाता हुआ एक ही रास्ता है।
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With the one who have taught me many lessons and from whom I aspire to learn more.
पेड़ की टहनियां और पत्तियां कितनी भी ऊंची और हरी क्यों न हो, जड़ से नाता छूटते ही सूख जाती है।
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19-03-23
Rahul Khandelwal
(Always your student)
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