उसकी पढ़ने की मेज़ पर शीशा रखा हुआ था कि अचानक उसकी निगाह ने चंद मिनटों के लिए ख़ुद को किताब से किनारा करते हुए शीशे की ओर देखा। इंसान के लिए ख़ुद को देखना भी कभी-कभी कितना चुनौती भरा हो सकता है, ये उसने उस दिन जाना था, मानो वो अपने ऊपर से परतें दर परतें उतार भीतर के अपने "मैं" को देखने से हिचकिचा रहा हो। सतह पर 'सत्य' निवास नहीं करता, वहां वो ओझल-सा प्रतीत होता हुआ दिखाई पड़ता है, उसे खोजने अथवा उसकी तालाश के लिए गहराई में उतरना पड़ता है। उसने कई दफा शीशा पलट कर रखने का प्रयास किया, परंतु नाकामयाब ही रहा। इंसान चाह कर भी ख़ुद से झूठ नहीं बोल पाता, ख़ुद को तसल्ली दे सकता है बस। ख़ैर।
निजी अनुभवों का स्वभाव भी कितना अजीब है, मानो इनमें इतनी क्षमता हो कि आपकी 'आज की राय क्या होगी' और 'फैसले लेने की निर्भरता' भी इसे अपना आधार समझ बैठती है और आप बात-बात में नियमों का सरलीकरण करने लगते है। लेकिन इसमें गलती आपकी भी नहीं, ऐसा करने के पीछे व्यक्तिगत अनुभावों की भूमिका अधिक होती है; दूसरा ये भी कि इंसान का बर्ताव भी मनुष्य और उसका स्वभाव बदलने से बदलता है।
क्या आपके अच्छे-बुरे अनुभव आपसे आपके 'वास्तविक मैं" को हमेशा के लिए छीन लेने का सामर्थ्य रखते है? मैं समझता हूं, ऐसा स्थायी रूप में या हमेशा के लिए नहीं होता, इसकी काल-अवधि कुछ समय के लिए ज़रूर इंसान से उसके "मैं" को छीन सकती है, लेकिन 'मन की वास्तविक त्वचा' को भला कौन छोड़ पाता है कभी। ये आसान नहीं, हां उसके अपने मन के भीतर द्वंद्व ज़रूर हो सकता है; दूसरा ये भी मुमकिन है कि वो अपने 'वास्तविक मैं' और 'खुद पर थोपे गए मैं' के बीच पैदा होने वाले विरोधाभासों में फसकर भी रह जाए परंतु अंततः उसका 'वास्तविक अथवा मूल मैं' ही बाकी सभी प्रकार की बनावटों पर हावी होगा।
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21-05-23
Rahul Khandelwal
Note: The picture is taken by me.
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