Friday, December 15, 2023

काश वो समझ पाते कि दैवीय शक्ति का सहारा लेकर, विरोधाभासों को छिपाया नहीं जा सकता।

ब्रजभूम पर इतिहासकार इरफ़ान हबीब द्वारा लिखी किताब से मालूम पड़ा कि मुग़लकालीन भारत में ‘हैमलेट’ यानि की छोटे गांव को ‘नगला’ कहा जाता था। जिस इलाके से मैं ताल्लुकात रखता हूं, उस गांव के नाम के पीछे छिपे संदर्भ और इतिहास की जानकारी मुझे इस किताब को पढ़ने के दौरान हुई। कितनी ही दुनियाएं खाली पड़ी रहती है इंसान के जीवन के इर्द-गिर्द, लेकिन हमारी चेतना, जिसका निर्माण नाना प्रकार के कारणों से होता है, उसी एक स्वयं-निर्मित छोटी-सी दुनिया में ख़ुद को केंद्रित किए हुए रहती है और लगभग पूरा जीवन व्यतीत कर देती है। ध्यान से देखने का प्रयास करें तो मालूम पड़ता है कि कभी-कभी, कुछ हद तक व्यवस्थाएं भी इंसान की चेतना को नियंत्रण कर संकुचित बना देती है, इतना कि कई बार हम अपने सबसे नज़दीकी वस्तुओं से ‘क्या, क्यों और कैसे’, ये सब सवाल करने की जहमत ही नहीं उठाते। हमारी चेतना के निर्माण की प्रक्रिया ही ऐसी है कि शायद हम इन सवालों के महत्व को ज़रूरी समझते भी नहीं है।

ख़ैर, तो बात कुछ इस प्रकार है-

गांव नगला इमारती¹, पोस्ट ऑफिस मिलाप नगर, रुड़की। मैंने पिछले पच्चीस सालों में इस गांव के आस पास कई-से परिवर्तन होते हुए देखें है। जैसे, पहले जब आप ‘ढंडेरा’ नामक कस्बे से होते हुए इस गांव की ओर जाती हुई सड़क से होकर जाते थे, तो आप देखते थे कि सड़क के दोनों किनारों पर भारी संख्या में घने पेड़ मौजूद थे, दूर-दूर तक खेत-खलिहान आपको दिखाई देते थे। एक प्रकार से ऐसा प्रतीत होता था जैसे आप एक घने जंगल से होकर गुज़र रहे हो। आज, जब उसी सड़क से गुज़रता हूं तो काफी साफ़ दृष्टि से देख पाता हूं कि सड़क के किनारे दोनों ओर स्थित वो छोटा-सा जंगल, दूर-दूर तक फैले खेत और खलिहान अपनी सघनता को खो चुके है। वहां पर बहती हवा, जो अब कम दबाव के साथ चेहरे को छूती है, एक प्रकार की ख़ामोशी को साथ लिए इस बात की गवाही देती है कि उसने अपनी पहचान से जुड़ी विशेषताओं को अब कम कर दिया है। अगर मैं अपने गांव के आस-पास किसी क्षेत्र में कोई भारी परिवर्तन नहीं देख पाया हूं (या बहुत कम, ना के बराबर देख पाया हूं) तो वो है सामाजिक व्यवस्था का ढांचा।



शोध की कक्षाओं में हम सभी अनेकों वाद, वैचारिकी और दार्शनिक विचारधाराओं से ख़ुद को अवगत कराते है और इस प्रक्रिया के चलते कभी-कभी हम अपने अवचेतन में कहीं दूर दुबकी बैठी किसी घटना पर पुनर्विचार करने को भी विवश हो जाते हैं। घटनाएं-दुर्घटनाएं सभी के साथ घटती है। विचार और विमर्श का हिस्सा, उन्हें वह फ़र्क बनाता है, जो इस बात में निहित होता है कि आप कौन-से और कितने प्रकार के चश्मे से उसका मूल्यांकन करते है।

मैं वापस गांव पर लौटता हूं-

आज की तारीख़ में इस गांव की आबादी करीब छः से सात हज़ार है जिसमें मुसलमान आबादी बहुमत में है। यहां रहने वाले दोनों ही धर्म (हिंदू और मुसलमान) के लोगों में जातीय विविधता शुरू से ही मौजूद रही। जैसे, हिन्दू परिवारों में यहां पंडित, त्यागी, बढ़ई, गौर, कुम्हार, नाई, झीवर, दलित (भंगी, चमार) आदि जातियों के लोग यहां रहते है। इसी तरह से मुसलमानों में भी जातीय विविधता देखने को मिलती है।



मुझे एक किस्सा याद आता है कि झीवरों के परिवार में से एक सदस्य, सोनू, बागड़ यात्रा पर राजस्थान गए। मान्यता है कि इस यात्रा से लौटने के बाद घर पर बड़े भोज यानि की ‘कंदूरी’ का आयोजन किया जाता है, जिसके प्रसाद के लिए लोगों को निमंत्रण देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। सभी लोग अपनी इच्छा से या कहिए कि दैवीय डर के कारण भी इस तरह के आयोजनों में हिस्सा लेने पहुंच जाते है, फिर चाहे आयोजक किसी भी जातीय समूह से संबंध ही क्यूं ना रखता हो। और ऐसा हुआ भी। तो सुरेश त्यागी भी अपने दोनों पोतों को लेकर सोनू के घर पहुंचे, जिनके घर के एक कोने में पूजन भी चल रहा था। सभी लोग बारी-बारी से मत्था टेकते, आशीर्वाद लेते और कंदूरी का प्रसाद ग्रहण करते। त्यागी जी ने अपने दोनों पोतों से मत्था टेकने के लिए कहा, सोनू की माँ ने बिना झिझके दोनों बच्चों के सर पर आशीर्वाद के रूप में अपना हाथ फेरा। उसके बाद उन लोगों ने भी बाकी सभी लोगों के साथ मिलकर कंदूरी का प्रसाद ग्रहण किया। सच्चे मन से आशीर्वाद देने वाला व्यक्ति धारणाओं को साथ लेकर नहीं चलता, इस तरह के भाव बिना किसी पूर्वग्रहों और रूढ़िबद्ध धारणाओं की इजाज़त लिए बिना स्वतः ही भौतिक रूप में बदल जाया करते है।



वहीं दूसरी तरफ़ मुझे वो दूसरा किस्सा भी याद आता है जब त्यागी जी ने गांव में ‘शेरा वाली माता के रात्रि जागरण’ के अगले दिन भंडारे (भोज) का आयोजन किया जिसमें प्रसाद ग्रहण करने की व्यवस्था कुछ जातीय समुदाय के लोगों को छोड़कर बाकी सभी के लिए एक जगह पर की गई थी, जहां लोगों के बैठने के लिए कुर्सियां भी मौजूद थी। उन्हीं में से दो कुर्सियों पर बैठकर त्यागी जी के दोनों पोतें भी खाना खा रहे थे। दरवाज़ें से बाहर निकलने पर ध्यान गया तो साइड में देखा कि दूसरे बच्चों के साथ सोनू के दोनों बेटे चटाई पर बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। ये कैसी विडंबना है कि एक तरफ़ एक व्यक्ति ईश्वर की आस्था में या उसके डर से अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलवाने किसी तथाकथित नीची जाति वाले व्यक्ति के यहां जाता है और दूसरी तरफ़ वही व्यक्ति अपने यहां ईश्वर की आस्था के नाम पर भोज का आयोजन कर किसी तथाकथित नीची जाति वाले व्यक्ति के बच्चों को अपने घर के भीतर दाख़िल भी नहीं होने देता।

काश! समाज में मौजूद इस तरह के लोग, समझ पाते कि दैवीय शक्ति का सहारा लेकर, विरोधाभासों को छिपाया नहीं जा सकता है।



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15-12-23
Rahul Khandelwal 

Notes & References: 
1) 1st picture shows Dhandhera/Laksar road heading towards my village, i.e., Nagla Imarti (as the same is mentioned in my blog as well).

2nd, 3rd & 4th picture is taken from internet.




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