Sunday, September 22, 2024

दुविधाएं उसकी, जन्मदाता कौन?



ढांचों की गिरफ्त में मनुष्य

नहीं सोच पा रहा

परे कुछ भी इसके


गर ख़्याल में भी

देता है पनाह चाह को वह

तो वैधता का सवाल

आता है उपज

सामने उसके बार-बार

जो कहीं बहुत दूर से

हां अतीत काल से ही

आ रहा है चलता हुआ

बीहड़ रास्तों से

करता हुआ दमन

इच्छाएं 'अन्यों' की


संरचनाओं में बंधा हुआ

वह जानता है-

'ढांचें'- जो वैधता प्राप्त करने का स्त्रोत है

नहीं स्वीकारेगा

गर वो उन्हें जो

धूल में मिला दी जायेगी

पहचान उसकी

और मान्यताओं का तमगा

दे दिया जायेगा

किसी अनुयायी को


वो जो नहीं जानता

ना ही पा रहा है देख-

दीवार के पीछे छिपे

उन संस्थानों के समूहों को

और नकाब ओढ़े हुए

उन चेहरों को

बुन रहे है जो

सदियों से

राजनीति के जाले

ध्यान रख परिप्रेक्ष्य का

अपनी ही रंगों की ऊन से

कर रहे है तैयार

और भी मज़बूत ढांचें

उधेड़-उधेड़ कर

'अन्यों' की पसंद की रंगीन ऊन के जाले


वो जो नहीं जानता

ना ही पा रहा है समझ-

कि बुनाई के बाद

क्यूं नहीं अंट रहा है

जाल उसके शरीर में?

क्या तुम कर पाते हो

संबद्ध स्थापित अपरिचित से

इस शर्त के साथ

कि बेहतर बोलना होगा तुम्हें 

उसके साथ, उसी की ज़बान में?

___________________

22-09-2024

Rahul Khandelwal


Notes: 1. The picture used in this blog is taken from internet.

Click on this link to listen my literary piece on YouTube.

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