Saturday, June 29, 2024

क्या मानवीय व्यवहार में कुछ भी प्राकृतिक (natural) नहीं होता? स्वाभाविक (instinctive, intrinsic) कहना ज़्यादा उचित रहेगा?

“समय बीतने और मौसम बदलने के साथ इंसानों के जीवन से जुड़ी हुई दिनचर्याओं के कुछ हिस्से नहीं बदलते, जो उनके आस-पास रहने वाले लोगों के लिए एक-ही से नज़ारों में तब्दील हो जाते है”, टहलते वक्त यही ख़याल नीरज को घेरने लगा। चिंतन से भरे ख़यालों में घिरे रहने की आदत नए रास्तों का द्वार खोलती है और पुरानों का नए सिरे से मूल्यांकन करती है। ख़ैर।

रोज़ रात का भोजन कर वह छत पर टहलने आ जाता है। हमारे कुछ कृत्य आदतों का रूप ग्रहण कर लेते है, शायद हमारी इच्छाओं के बिना भी। यह उसने उस दिन जाना कि ऐसे परिणामों के पीछे हर बार सिर्फ़ इंसान की अपनी ही मर्ज़ी नहीं होती, कई बार अपनों की, जैसे मां और बहनों द्वारा दी गई, रोज़ाना की सीख भी इंसानी क्रियाओं को आदत में बदल देने की क्षमता रखती है।

आज भी टहलते वक्त नीरज को वही नज़ारा अपनी ओर आकर्षित करने लगा जिसे वह पिछले आठ महीनों से देखता आया है। आकर्षित भी कुछ यूं कि उस दृश्य को देख वह कई सवालों के साथ सोच में पड़ जाता है। सामने वाली इमारत की एक मंज़िल उसकी छत से दिखाई पड़ती है, जिस पर करीब आधी जगह पर दो कमरें बने हुए है और आधी जगह में खुला आंगन है। उन्हीं दो कमरों में से एक कमरें में झारखंड से आया हुआ एक दंपति अपने तीन बच्चों समेत (दो बेटी और एक बेटा), इस छोटे से परिवार के साथ किराए पर रहता है। आंगन के एक कोने में रसोई घर बना हुआ है, जहां उन बच्चों की मां दिन का अधिक समय गुज़ारती है।


खाना पकाते वक्त बड़ी बेटी रिया अपनी मां के पास आ जाती है और उस समय वहीं आस-पास ही रहती है; और छोटे भाई बहन कभी कमरे के भीतर तो कभी बाहर आंगन में खेल रहे होते है। पिता के काम पर चले जाने के बाद घर की यह जगह (यानी की रसोई) मां और बेटी को एक-दूसरे का, एक अलग प्रकार का साथी बनने का मौका देती है, शायद रिया की मां अपनी इच्छा या अनिच्छा से वह साथी चाहती भी है। कई बार हम चीज़ों को और अपने आस पास के लोगों को व्यवस्थाओं में ही बंधा हुआ देखना चाहते है, ना कम ना अधिक, बिलकुल जस का तस। कभी-कभी हम उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं रखते, बस अपने आस पास उन्हें उनके ही रूप में, वैसा का वैसा ही, बने हुए देखना चाहते है।


नीरज सोचने लगा कि ये सब प्राकृतिक तो नहीं है, लेकिन क्या इसमें कुछ भी प्राकृतिक नहीं है? क्या स्वाभाविक कहना ज़्यादा उचित रहेगा? ऐसा क्यों है कि रसोई घर से जुड़े हुए काम काज के सिलसिले में मां अपनी बेटी में ही एक साथी को ढूंढती है? अगर रिया का भाई बड़ा होता, तो क्या वो रसोई घर में उसी तरह से मां का साथी बन पाता? मनुष्य में वे सभी तत्व कौन से है जिसके साथ वह जन्म लेता है और जो आगे चलकर उसके व्यवहार को निर्धारित करते है कि कौन-सी आदत का चुनाव एक लड़का करेगा और कौन-सी आदत का, एक लड़की? क्या किसी इंसान के बनते हुए मानवीय व्यवहार, उसके द्वारा चुने गए काम और उसकी आदतें सिर्फ़ सामाजिक निर्माण का ही परिणाम होती है? इन्हीं सब सवालों से वो घिरने लगा।

बीच-बीच में रिया कमरे के भीतर जाती, लेकिन मां की एक पुकार पर फिर बाहर आने को होती। चूंकि कमरे के बाहर ही एक तरफ़ रसोई घर बना दी गई है, तो रिया कमरे के किवाड़ पर लटक सी जाती, आधी भीतर और आधी बाहर। ऐसी स्थिति में ही वो मां के आदेशों को सुनती, मानो एक तरफ़ वो ये सब सुनना भी चाह रही हो और दूसरी तरफ़ नहीं भी- जैसे उसके शरीर का भीतर वाला हिस्सा विरोध का प्रतीक हो। मां कभी बोलकर तो कभी इशारों-इशारों में उसे सब बताती चली जाती और वो निर्देशों के अनुसार काम में हाथ बटाती चली जाती।

नीरज उन्हें देखता रहता, टहलता रहता और घिरता रहता चिंतन भरे सवालों से।

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30-06-2024

Rahul Khandelwal 

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