जसिंता केरकेट्टा लिखती है कि "मेरा गांव. मेरा देश. राष्ट्र प्रतीकों में फंसा रहता है. उसकी पीड़ा प्रतीकों से जुड़ी रहती है. पर देश लोगों के भीतर बसा होता है. वह एक दूसरे की परवाह करता है. एक दूसरे की पीड़ा समझता है. लंबी यात्रा से अपने समुदाय के बीच लौट आने पर जिस तरह वह परवाह करता है, लगता है देश बचा हुआ है."
इस पर मेरी टिप्पणी-
अगर मैं राष्ट्र और देश की कई परिभाषाओं में से एक इस परिभाषा को जस का तस मान लूं तो कितना सच मालूम पड़ता है इसे पढ़ने के बाद। कई बार लगता है हम 'सो कॉल्ड' ऐसे वर्ग का हिस्सा होने पर गर्व महसूस करते है जिसे पढ़ा लिखा और चिंतनशील व्यक्तियों के समूह का हिस्सा होने का टैग प्राप्त है। वहीं इसी वर्ग को गहराई से देखने पर मालूम पड़ता है कि इस वर्ग ने कितनी प्रकार की अलग–अलग 'वाद' से बुनी हुई चादरों से ख़ुद को ढ़का हुआ है और ये भीतर ही भीतर कितना विभाजित है। ऐसा नहीं है कि ये ख़ुद को इतना सहिष्णु बनाने में कामयाब रहा है कि इसे ठेस ही नहीं पहुंचती और ये आहत भी नहीं होता। नहीं। 'निर्णय और सत्य' जितने नज़दीक जान पड़ते है, उतने होते नही है। वो सतह पर ना होकर गहराई में निवास करते है।
राष्ट्र की और देश की चिंताओं में कितना अंतर है। कई बार राष्ट्र अपनी चिंताओं में, उस से जुड़े विमर्श में इतना व्यस्त हो जाता है कि देश से उसकी दूरी कब बनती चली जाती है कि उसे ख़ुद को ही मालूम नहीं पड़ता। राष्ट्र इतना और इस क़दर व्यस्त होता है उन विमर्शों में कि इसमें भाग लेने वाले लोगों का समूह (वर्ग) समझने लगता है कि देश सच में कितना विभाजित है। वहीं दूसरी तरफ़ जब मैं गांव, अपने समुदाय के लोगों के बीच पहुंचता हूं तो देश और वहां पर मौजूद लोग आदर सत्कार कर आपका स्वागत करते है। ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती हैं। उनकी चिंताओं का हिस्सा किसी वाद के ख़त्म हो जाने का डर ना होकर अपनी निजी ज़रूरतों को कैसे पूरा किया जाएं, अपनी चिंताओं से कैसे निदान पाया जाएं– यह अधिक होता है।
प्राचीन काल में बुद्ध ने, महावीर ने, अशोक ने; बाद में अगर मध्यकाल में देखें तो अमीर खुसरो ने, बाबर द्वारा दी गई हुमायूं को सलाह, अकबर ने; आधुनिक काल में गांधी ने और भी तमाम लोग, जिनका आमजन को जनभाषा में संदेश पहुंचाने पर कितना ज़ोर था। शायद इसके महत्व को हम उस तरह से नहीं समझ पाए है जितना की समझना चाहिए था। हम इस उम्मीद में कि जनसमूह के एक बहुत बड़े तबके को बदलना है, उनकी सोच में बदलाव लाना है लेकिन इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए हम उस जनसमूह के बड़े तबके के बीच बोली और समझी जाने वाली बोलचाल और जनभाषा का इस्तेमाल करने से हिचकिचाते है और इस प्रकार के विमर्शों के विस्तार को उन्हीं एक-से सौ-दो सौ लोगों तक सीमित कर उन्हीं के बीच दोहराते रहते है। आप इसे हिपोक्रिसी या विरोधाभास कुछ भी कह सकते है। शायद एक अंतर राष्ट्र और देश में यह भी है।
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Rahul Khandelwal
19-06-2023

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