Wednesday, October 9, 2024

सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म



दूर बैठे राजधानी से

बच्चे लगातार बुन रहे है सपने उम्मीदों के

लिए हाथ में सच की सिलाई और धागा

आपूर्ति होती है जिसकी

मां की शह और पिता की कमाई से।


विवेक रहा है जाग धीरे-धीरे

झर रही है झूठ के कणों से निर्मित परतें

खोल रही है बुद्धि अपने चक्षुओं को

हिस्से है ये सभी बुनाई की प्रक्रिया के

टिके है जो धर्म और न्याय की नींव पर।


न्यायसंगत नहीं है वे हिस्से

जो एक ही से वर्ग का अंग होकर

वैधता पाने के लिए संस्थाओं से

बैठकर राजधानी में मिलीभगत कर

बोल रहे है निरंतर झूठ उन बच्चों से

बारे में उन्हीं संस्थाओं के

कि कायम रहें उनका और अपना ही वर्चस्व

चूंकि बने रहने के लिए ऊंचाई पर

दूसरे सपनों को कैद करना ज़रूरी है।


दावे के नाम की शपथ ले

बोला गया सच

प्रायः सत्य होता नहीं 

करता है हिफाज़त वो

लाभार्थियों की, व्यवस्थाओं की

वंचितों से नहीं, उनकी चेतना से।

___________________

08-10-2024

Rahul Khandelwal 


Note: The picture used in this piece is taken from the internet.

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