सत्य गहराई में निवास करता है, ऊपरी सतह पर नहीं। पकती उम्र और बढ़ते अनुभव इस बात के एहसास को धीरे–धीरे मजबूत बनाते हैं। खुली आंखों से दिखने वाले कई सत्य, कारण के रूप में मौजूद, मुख्यतः बाहरी परिस्थितियों (जिन्हें ऐतिहासिक कारक भी कहा जा सकता है) के चलते निर्मित होते हैं। मेरी इस बात से यह अर्थ हरगिज़ न निकला जाए कि जिन सत्यों को हम खुली आंखों से नहीं देख पाते उनके निर्माण में बाहरी परिस्थितियों की भूमिका नगण्य होती है; लेकिन हां, फ़र्क सिर्फ इतना होता है कि वहां अंदरूनी कारकों का योगदान थोड़ा और अधिक बढ़ जाता है। इसी को समझने की प्रक्रिया में जो सवाल मेरे सामने उठ खड़ा होता है, वह यह है कि दोनों में असल और बड़ा सत्य क्या है?
एक उम्र के बाद मुझे समझ आने लगा कि अंदरूनी घावों का प्रभाव शरीर पर दिखने वाले बाहरी घावों से अधिक गहरा होता है। अलग-अलग परिस्थितियों, प्रक्रियाओं और तरीकों में क्षमता हो सकती है, जिसके चलते यह मुमकिन है कि मनुष्य दोनों प्रकार के घावों का सामना करे— “शब्द” उनमें से एक है। कई शब्द अतिशक्तिशाली होते है, उनकी धार औज़ारों से भी कई गुना तेज़ होती हैं। इसके पीछे छिपे कारणों की पड़ताल करते समय मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि शायद एक कारण यह ज़रूर है कि “शब्द” बाहरी शरीर पर नहीं बल्कि अंदरूनी शरीर पर प्रहार करते है।
वे महफिलें जहां कभी–कभार उपहास की प्रक्रियाएं मज़ाक की प्रक्रियाओं का नकाब ओढ़, घर कर लेती हैं; एक प्रकार से मज़ाक के नाम पर दोनों के बीच के अंतर को समाप्त कर देने की ही एक कोशिश भर होती है। वहां (उन महफिलों में) ऊपरी सतह से देखने पर तो लगता है कि रिश्तों में समभाव और बराबरी जैसी भावनाएं व्याप्त हैं, लेकिन ध्यान से देखने पर मालूम पड़ता है कि उनके भीतर भी खांचें बने होते है, जहां अधिकांश लोग बाकी लोगों के साथ व्यवहार करते समय "शब्दों और व्यवहार के कुछ अंशों" का सुनियोजित चुनाव करते है (ऐसा जानबूझकर या अनजाने में किया जाता है या नहीं, ये अलग बहस का विषय हो सकता है और सुनियोजन जानबूझकर ही हो, ऐसा भी ज़रूरी नहीं) कि किसके साथ कैसा, कितना और किस हद तक व्यवहार करना है। फ्रायड की शब्दावली में अगर अपनी बात कहूं तो ऐसे सुनियोजन के पीछे व्यक्तियों के मन का चेतन नहीं बल्कि अवचेतन और अचेतन हिस्सा अहम भूमिका अदा करता है।
इतिहास में गुज़रे अनुभवों के चलते निर्मित परिवेश और पृष्ठभूमि में काम कर रही मौन प्रक्रियाओं (silent processes) के चलते व्यक्ति ऐसी स्थिति में आ जाता है, मुमकिन है कि वह इन प्रक्रियाओं से बिल्कुल अंजान हो। उदाहरण के तौर पर दस लोगों की महफिल में किसके लिए किन शब्दों का चुनाव करना है, यह हम अपनी दृष्टि के आधार पर दस लोगों के व्यवहार का, एक समय सीमा के भीतर रहते हुए, आकलन करने के बाद तय करते है। इस तरह की “दृष्टि और आकलन” मेरे मन में संदेह को जन्म देते है जिसके चलते मेरे सामने एक और सवाल उठ खड़ा होता है कि कोई मनुष्य बाकी मनुष्यों के साथ एक प्रकार का व्यवस्थित संपर्क स्थापित करने के बाद भी एक–सा व्यवहार क्यों नहीं करता? जब मैं एक–सा व्यवहार करने की बात कर रहा हूँ, तो मेरा ज़ोर इस बात पर है कि मनुष्य के जो बुनियादी मूल्य होते है, उनका अभ्यास करते समय वह उन्हें भी सभी के साथ एक समान क्यों नहीं बनाएं रखता। क्योंकि मैं इस बात से बिल्कुल इंकार नहीं करता कि हमारा व्यवहार सभी के साथ एक-सा नहीं होता है, इसीलिए मैंने इसे पहले ही स्पष्ट करना उचित समझा कि मैं “बुनियादी मूल्यों” की बात कर रहा हूं।
मनुष्य व्यवहार पर उठाए गए सवालों का सामना करना एक प्रकार से "चुनौती" होता है क्योंकि कई बार आप अपने चरित्र के उन पहलुओं से सामना करते है, जो आप ही का सच होता है और हो सकता है कि आप उससे सचेत भी हो (या ना भी हो) लेकिन साथ ही साथ आप निरंतर उसे नकारने का प्रयास भी कर रहे होते है। यह स्थिति कभी–कभार अपने रूप को इस कदर बदल लेती है कि आप उन तमाम पहलुओं को मानने से इनकार करते रहते है, यहां तक कि उन्हें सुनना तक भी नहीं चाहते (उन्हें बदलना तो शायद आपकी प्राथमिकता में ही ना हो)।
शब्दों के ही संदर्भ में एक दूसरा किस्सा यह है कि "मादक अथवा नशीले पदार्थों" के प्रभाव में भी मनुष्य शब्दों के चयन में बदलाव करता है और अपने निजी व्यवहार के उन पहलुओं को प्रदर्शित करता है जो आम दिनों में मुमकिन है कि वह ना करें। इसी सब को सोचते हुए एक नया सवाल और मेरे सामने आ जाता है कि ऊपर बताए गए प्रसंगों में मनुष्य के व्यवहार की कौन-सी छायाएं उसके असल “मैं” को प्रतिबिंबित करती है—बाहर से, खुली आंखों से देखने पर ऊपरी सतह पर जो निवास करती है, वे; या फिर जिन्हें खुली आंखों से देखना एक प्रकार से असंभव सा है, ध्यान से देखने और अनुभव के ज़रिए ही उन्हें महसूस किया जा सकता है और जो गहराई में निवास करती है, वे?
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17-03-2025
Rahul Khandelwal
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