स्थानों का महत्व इस बात में भी निहित होता है कि कुछ जगहें आपको भीतर की ओर देखने को मजबूर करती है। कुछ दार्शनिकों ने इसे यह कहकर भी खारिज किया है कि स्वः की अनुभूति के लिए जगहों के चुनाव को महज़ किसी शर्त के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है कयोंकि इसका अधिक संबंध आपके अंतर्मन से है, जिसे कुछ हद तक और कुछ वजहों के चलते स्वीकारा जा सकता है।
लेकिन फिर आप इसे कैसे स्पष्ट करेंगे कि कुछ विशेष स्थानों पर पहुंचने के बाद, किसी सत्ता के सामने सजदा करते हुए जब आप अपनी आंखों को बंद करते है, तो आप भीतर से यह महसूस करते है कि आपने दो कदम 'सत्य' की ओर बढ़ाएं है? साथ ही सवाल यह भी उठ खड़ा होता है कि क्या आप वाकई में किसी सत्ता के सामने झुकते है या असल में आप अपनी अंतरात्मा का सामना कर रहे होते है? क्या आप इस बात का दावा कर सकते है कि सत्य की अनुभूति का होना और जगहों का, आपस में कोई वास्ता नहीं है, उन दोनों का आपसी संबंध बेबुनियाद है? क्या इस सब के पीछे के कारणों में सांस्कृतिक भूगोल के अलावा भी अन्य कोई कारण है या दूसरा कोई दार्शनिक आधार?
किसी के लिए एक ऐसे शहर के बीच खड़ी इमारत भी इबादत का ज़रिया बन सकती है, जिसे इतिहास में कही तबाह किया गया हो। क्या तबाही आस्थाओं को भी विध्वंस कर सकती है? क्या किसी की आस्था को किसी के लिए पूरी तरीके से तबाह कर पाना मुमकिन है?
उन्होंने कई शहर तबाह किए,
नहीं बख्शा हर उम्र के बेकसूरों को भी,
मलबे में तब्दील कर दी गई,
कई इमारतें और इबादत के स्थल।
लेकिन नहीं विध्वंस कर पाई उनकी नफ़रत,
मेरी अविनाशी अंतरात्मा और आस्था को,
जिसके अस्तित्व का संबंध मेरे जीवन से है,
उनके अहंकार से नहीं।।
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01-02-2024
Rahul Khandelwal
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