एक कोना है मेरा भी,
उसका भी, तुम्हारा भी।
जहाँ बैठ कर मेरी क़लम से निकली स्याही,
उससे लिपटे पन्ने से कभी झूठ नहीं कहती।
वो किताब, जिसके रंग की,
दोहराने से उस पर पड़ी उन सिलवटों की,
मेरी आँखों को अनकही एक आदत-सी हो गई है।
उसका भी, तुम्हारा भी।
जहाँ बैठ कर मेरी क़लम से निकली स्याही,
उससे लिपटे पन्ने से कभी झूठ नहीं कहती।
वो किताब, जिसके रंग की,
दोहराने से उस पर पड़ी उन सिलवटों की,
मेरी आँखों को अनकही एक आदत-सी हो गई है।
दहलीज़ के इस पार मेरा कोना हैं, जहाँ हर शाम मैं इस आस में वापस लौट आता हूँ कि आज अपनी मेज़ पर रखे उस कोरे काग़ज़ पर बिखरी इतिहास की उन झूठी परतों को स्याही में लिपटी अपनी क़लम से साफ़ करूँगा।
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15-11-2021
Rahul Khandelwal
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