“डोर का सिरा मोतियों को पिरोहने के लिए हर मकान की चौखट पर आकर नहीं रुकता। समय के साथ परखने और जीवन से जुड़े निजी अनुभवों के बाद उसे भी इस बात का एहसास अंततः हो ही जाता है कि किस रंग के मोती का चुनाव करना उसके लिए उचित है। ये प्रक्रिया बिना किसी बनावट और नियम के स्वतः ही होती है और साथ ही साथ समय की मांग भी करती है।”
इस पर विचार करने की ज़रूरत है कि क्या कैंसल कल्चर के नाम पर सभी रूढ़िबद्ध धारणाओं को खारिज किया जा सकता है? ऐसा करना कहां तक उचित है? ऐसा ज़रूरी नहीं है कि किसी अवधारणा को सैद्धांतिक रूप में समाप्त करने से, उसकी व्यवहारिकता भी समाप्त हो जाती है। रूढ़िबद्ध धारणाओं को हर बार किसी खांचे या वाद में बांधकर खारिज नहीं किया जा सकता। उनके असल महत्व को समझने के लिए, उन्हें उनके बनने की प्रक्रिया के संदर्भ में अधिक देखने की ज़रूरत होती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक अनुभवों के आधार पर किए गए सरलीकरणों को कृत्रिम धारणाओं में तब्दील कर दिया गया हैं? प्रेमचंद ने सही कहा है कि संगत का आधार विचार, व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी होता है। क्या आप इसे भी खारिज कर सकते है?
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26-12-23
Rahul Khandelwal
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