Saturday, August 26, 2023

अनूठेपन से डरता समाज

 


मुझे छोटा नज़र आता है

उनका व्यवहार

जब वो ज़बरदस्ती कर उसे 

अपना सा बनाने की कोशिश में

जद्दोजहद है करते


मैंने उसे कई दफ़ा

संघर्ष करते हुए देखा है 

कि उसका रंग

यूं ही, बरक़रार

बचा रहे बिना घुले

कि यहां सब उसे

अपने रंग से रंग देना चाहते है


सबकी गुहार 

विभिन्नताओं को बचाने की है

वास्तव में

चाहता कोई भी नहीं

अस्तित्व उसका

ख़त्म कर उसे

समरूप कर देना चाहते है 

सभी एक-दूसरे को


उसने, सबको उनके

असल रूप में स्वीकारा है

पहले से ही

इतिहास और साहित्य पढ़ने के बाद

और भी अधिक

लेकिन, निरालापन

नष्ट कर देना चाहता है

ये समाज उसका


सवाल जटिल ना होकर

बहुत-ही सरल है-

विभिन्नताओं की दुहाई देने वाले,

अनूठेपन को स्वीकारने में कतराते क्यूं है?


(ज़ुबानी कुछ भी कह देना बहुत सरल है उसके व्यवहारीकरण से।)


___________________

24-08-23

Rahul Khandelwal

Click on this link to listen my poem on YouTube.

No comments:

Post a Comment

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...