इंसान के आंसू भी सच और झूठ की पहचान का पैमाना हो सकते है, ये उसने उन दिनों जाना था। करीब से निहारने पर मालूम पड़ता है कि आम दिनों में घिरी आम सी दिनचर्या में बीत रही आम घटनाओं की महत्ता इतनी भी अधिक हो सकती है कि आप किसी के चहरे पर आए (पड़े) आंसुओं से ये अंदाज़ा लगा पाने में समर्थ हो पाते है कि उस व्यक्ति के द्वारा सुनाई गई कहानी सच और झूठ के तराज़ू में किस ओर अधिक झुकी हुई है अथवा कथा की निर्मिति वास्तविक है या कृत्रिम।
मैं शाम के वक्त लौट रहा था तभी मैंने उन्हें मैट्रो स्टेशन की सीढ़ियों पर खड़े हुए देखा। इंसान के द्वारा इस्तेमाल किए गए चिन्हों और प्रतीकों में उसके हावभाव (सुख-दुःख) बताने की क्षमता होती है। आधी कहानी उनकी जुबान ने बयां की तो शेष आसूं पोंछते उनके दुपट्टे ने। मुझसे पहले ही किसी और के द्वारा उनकी कहानी को सत्यापित किया जा चुका था और कुछ थोड़ी आर्थिक मदद भी। सत्य पर आधारित इंसानी भावनाओं को सही तरीके से पहचानने की हम सभी में एक समान-सी दृष्टि पाई जाती है, जो शायद ही कभी धोखा खाती है।
वहां से लौटा तो मुझे कमलेश्वर याद आ गए, उन्होंने ठीक ही कहा था कि "मनुष्य के आँसुओं से पवित्र कुछ भी इस दुनिया में नहीं है।" चौराहें से दाई और मुड़ने लगा तो टॉलस्टॉय ने घेर लिया जिन्होंने अपनी कहानी- 'मनुष्य का जीवन आधार क्या है' में देवता से ये कहलवाया था कि "पहले मैं समझता था कि जीवों का धर्म केवल जीना है, परन्तु अब निश्चय हुआ कि धर्म केवल जीना नहीं, किन्तु परेमभाव से जीना है। इसी कारण परमात्मा किसी को यह नहीं बतलाता कि तुम्हें क्या चाहिए, बल्कि हर एक को यही बतलाता है कि सबके लिए क्या चाहिए। वह चाहता है कि पराणि मात्र परेम से मिले रहें। मुझे विश्वास हो गया कि पराणों का आधार परेम है, परेमी पुरुष परमात्मा में, और परमात्मा परेमी पुरुष में सदैव निवास करता है। सारांश यह है कि परेम और पमेश्वर में कोई भेद नहीं।"
गांव और शहर में रहने वाले निवासियों के व्यवहार के बीच के फ़र्क को मैंने कई बार महसूस किया है। शिक्षा एक स्तर पर इंसान में आत्मविश्वास पैदा करती है और उसे आत्मनिर्भर बनाने की ओर अग्रसर भी, लेकिन क्या इसका संबंध इंसान के मूल व्यवहार और भावनाओं में होने वाले (और नहीं होने वाले) बदलाव से भी है? फ्रेंच इतिहासकार फर्नैंड ब्रॉडेल ने कहा था कि परिस्थितियों और घटनाओं की सच्चाई ऊपरी सतह पर नहीं बल्कि गहराई में निवास करती है। मैं सोचता हूं कि ऐतिहासिक और वर्तमान में हो रही घटनाओं, परिस्थितियों, मनुष्यों द्वारा लिए गए फैसलों के पीछे संबंधित मानवीय व्यवहार और भावनाओं का कितना योगदान हो सकता है, यह शोध का विषय है। क्या एक-सी स्तिथि में प्रतीत होती हुई एक-सी मानवीय भावनाएं समाज के विभिन्न वर्गों में आने वाले अलग-अलग लोगों को, उनके व्यवहार को, एक ही तरह से प्रभावित करती है?
मैं ये सब सोच ही रहा था कि कब बस स्टॉप आ गया, मालूम ही नहीं पड़ा।
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11-08-2023
Rahul Khandelwal
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