वो बाकी चीजों की भांति नहीं हैं कि दूरी अधिक हो तो धुंधला दिखाई दे, उसकी स्पष्टता की तीव्रता किसी भी प्रकार के फासले या दूरी के मोहताज नहीं है। इसकी पहचान होते ही तमाम कारकों (राजनीतिक, धार्मिक, समाजिक और आर्थिक) का निर्णय तुरंत ले लिया जाता है। इसका नाम "विचार" है। इससे कोई अछूता नहीं, यहां तक कि एकेडमिक डिस्कोर्स भी नहीं जिसका आधार (पता नहीं ये आधार है भी या नहीं या कितना प्रतिशत है) 'कारण, चेतना और तार्किकता' से है। आपके चुनाव और निर्णय लेने के पीछे जब "कारण और तर्क" का स्थान "खांचों में बांट दी गई विचारधाराएं" लेने लगे (ख़ासतौर से ऐसी विचारधाराएं जिनका लक्ष्य ही 'तार्किकता' को नष्ट कर देना हो), तो आगामी भविष्य सिर्फ़ अंधकार से घिरा हुआ दिखाई देता है।
क्या किसी भी गंभीर और आलोचनातमक डिस्कोर्स में आप इसलिए हिस्सा लेना बंद कर देंगे क्यूंकि उसकी व्यवस्था करने वाले आपकी विचारधारा के विपरीत या अलग है? मैं किसी भी एकेडमिक बहस में हिस्सा लेने का चुनाव इस आधार पर नहीं करता कि उसके आयोजक कौन है। लेकिन नहीं, यहां आपको कदम–कदम पर रोका जाता है बिना किसी भी प्रकार का तर्क पेश किए क्योंकी सामने वाला "कारण और तर्कसंगतता" से घोर घृणा करता है, उन्हें "सवाल पूछने की क्षमता" की गंध अच्छी नहीं लगती।
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30-04-2023
Rahul Khandelwal
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