नज़रियों की सीमा नहीं होती। बस ज़ुबान बदलने की देर होती है कि एक तरफ़ ये बदली नहीं और दूसरी तरफ़ नज़रिया बदल जाता है। दिल्ली सचिवालय मेट्रो स्टेशन के निकट कांस्टीट्यूशन क्लब में कल शाम करीब तीन सौ-साढ़े तीन सौ लोग रहे होंगे जिनमें युवा पीढ़ी भारी मात्रा में मौजूद थी। उन सभी में से कुछ ने अपनी मौजूदगी को 'हैरत' के साथ दर्ज भी किया जब बानवे वर्ष की आयु में एक प्रोफेसर मौजूदा परिस्थिति में भारत के राजनैतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में गांधी की प्रासंगिकता पर व्याख्यान देने के लिए डेढ़ सौ किलोमीटर दूरी का फासला तय कर क्लब के दरवाज़े पर पहुंच कर अपनी लाठी का सहारा ले पोडियम तक चल कर आता है।
मुझे मालूम पड़ा कि जिस व्यक्ति या दृश्य को हम सभी 'हैरत' भरे अंदाज़ से देखते है या उन तमाम बड़ी-बड़ी उपाधियों से लाद देते है, उसे पाने वाले लोग उसी प्राप्त हुए हैरत से भरे अंदाज़ या उपाधियों को ये कहकर आम बना देते है कि जीवन में मन, कर्म और वचन में सामंजस्य होना कितना अधिक महत्वपूर्ण है; वो आम बना देते है उन सभी प्राप्त हुई उपाधियों को ये कहकर कि मैं गांधीजी से उनके जीवन में उनके साथ हर समय मौजूद रहने वाले "स्पिरिट" से प्रेरणा प्राप्त करता हूं कि मुझे कुछ देर बाद मालूम पड़ा कि एक लंबे गुज़रे हुए अनुभव से प्रेरणा लेना और उसके अनुसार नियमित रूप से चलना किसी के लिए हैरत कर देने वाला दृश्य है तो किसी दूसरे के लिए आम। और इस प्रकार के सभी लोग वे है, जो असल मायनों में प्रेरणा प्राप्त करते है।
करीब आधे घंटे के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें एक शख़्स ने प्रोफेसर हबीब से पूछा कि 2023 में हम गांधीजी से क्या सीख सकते है। प्रोफेसर ने अपना माइक उठाया और उस शख़्स की ओर अपनी नमीं आंखों से देखा और कहा कि "इंसानियत और उसका महत्व", ये कहकर माइक रखा ही था कि सभी लोग तालियां बजाने लगे।
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03-10-23
Rahul Khandelwal
#Akshar_byRahul
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