कई बार कैसे आंखों के सामने घटती घटनाओं को हम जान बूझकर या अनजाने में देख नहीं पाते या कहिए कि हिम्मत (कोशिश) नहीं करते देखने की। मनुष्य ने ख़ुद को डर से बुनी हुई कई प्रकार की चादरों से ढ़का हुआ है। वो सच को लोगों के समक्ष लाने में डरता हैं। कहीं–कहीं ऐसा करने में उसका हित भी छिपा है लेकिन वो इसे स्वीकारता नहीं और स्वीकारने में डरता है कि उसकी विवशता और दुर्बलता सबके सामने ना आ जाए। अब वो इसी गुत्थी में उलझा रहता है। यहीं मनुष्य व्यवहार है।
'आपके हित' और 'परिणाम में उस से पैदा होने वाले डर' का आपस में गहरा रिश्ता होता है। इतना कि आप चाह कर भी, सब कुछ जानते-बूझते हुए, सच का साथ नहीं दे पाते और उन व्यवस्थाओं का साथ देने पर मजबूर हो जाते है जिनका वास्ता अधर्म से है, झूठ से है। यह प्रक्रिया आपको डर के इतना निकट ले जाती है कि आप चाह कर भी आंखों पर पड़ी (बंधी) उन पट्टियों को हटाना नहीं चाहते ताकि आप सच का सामना ना कर सकें। आप दुर्बल बनने पर विवश हो जाते है।
आप तमाम धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण देते हुए कह सकते है कि सत्य की कोई एक परिभाषा नहीं है। ठीक है, मुझे इस से कोई परहेज़ भी नहीं है और ना ही कोई हर्ज़। लेकिन मेरा सवाल उस 'सार्वभौमिक सत्य' के संदर्भ में है जो अपनी जांच और सत्यापन के लिए किसी ग्रंथ की गवाही की मांग नहीं करता। क्या वो सत्य भी अप्रासंगिक हो सकता है? क्या आप उसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े कर सकते है? अगर हां, तो निश्चित ही आपका इसमें कोई निजी हित छिपा है।
जब कोई व्यक्ति, समूह या संगठन 'सार्वभौमिक सत्य' की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करने (उठाने) लगे या उसे स्वीकारने से इंकार करने लगें, तो समझ लीजिए ऐसा करने में उसका निजी स्वार्थ छिपा है।
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Originally written on 28-12-21; Revised on 02-12-23
Rahul Khandelwal
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Notes:
1. The picture is taken from internet.
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