तो जब कभी मेरा, ऐसे किसी भी मौके से वास्ता पड़ता है, मेरी कलम मेरा साथ कभी नहीं देती। मैं चाहकर भी कुछ लिख नहीं पाता। उन क्षणों में ऐसा लगता है कि मेरे पास बहुत कुछ लिखने-कहने को तो है, लेकिन उसे लिखा और कहा नहीं जा सकता। मानो मैंने सब कुछ लिख दिया हो और लिखकर मिटा दिया हो।
कभी-कभी लिखकर मिटा देना भी 'लिखना' जैसा होता है। संवेदनाओं से भरी भावनाएं व्यक्त करने के लिए हर बार लफ़्ज़ साथ दे, ऐसा ज़रूरी नहीं। तब मैं उन तमाम शख़्स से बस इतना ही कह पाता हूं कि मैं उनके लिए दुआ करता हूं कि उनसे जुड़े उनके अपनों की सभी यादें हमेशा उनके साथ रहें।
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24-01-2024
Rahul Khandelwal
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