Friday, December 31, 2021

नई धूप की किरणों में कुछ अटूट साए घिर आए है।


नई धूप की किरणों में कुछ अटूट साए घिर आए है।

गुज़रा हुआ कल कभी-कभी पीछे खींचने लगता है, गर जो वापस जाऊँ तो वही समय मुझे उस काल की अवस्था में आगमन की इजाज़त नहीं देता, दहलीज़ से ही लौट जाने को मुझे विवश करने लगता है और मौजूदा समय की ओर धकेलने लगता है। मैं उस काल की चौखट तक को भी लांघ नहीं पाता।

जब धूप की किरणें होती है तो छाया ढूँढता हूँ और जिस दिन धूप नहीं होती तो उसी परछाईं को ढूँढने के लिए सूरज को तलाशने लग जाता हूँ।

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30-12-21
Rahul Khandelwal

Tuesday, December 28, 2021

कई अवसरों पर आपको बाद में जान पड़ता है कि ऐसा करने के पीछे कई कारणों में से एक कारण यह था कि आपने उस व्यक्ति को अनजाने में या जानबूझकर (क्यूँकि समाज के द्वारा स्थापित रूधिबद्ध व्यवस्थाओं को आपका शरीर भी स्वीकार कर चुका है) अलग-अलग आधार बना कर वर्गीकृत किया है और आपका व्यवहार भी उसी वर्गीकरण में (जिसका जन्म हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ) आने वाले लोगों के लिए बदलता रहता है।


आम दैनिक चर्चाओं में, परिवार में किया गया व्यवहार, सामाजिक और व्यावहारिक जीवन से जुड़े मुद्दे और भी अन्य स्थान (स्पेस) में जहाँ कई प्रकार (छोटे से बड़े) के भेदभाव आँखों के सामने से हो कर के गुज़रते है। जब आप अपने दैनिक जीवन में लोगों से बात करते है तो कभी-कभी अपनी बात को बड़ा रखते समय एक अन्य विचार स्वतः आपको सचेत करने लगता है कि आपके द्वारा किया जा रहा बर्ताव आपके समक्ष खड़े व्यक्ति के प्रति भेदभाव को दर्शा रहा है और कई अवसरों पर आपको बाद में जान पड़ता है कि ऐसा करने के पीछे कई कारणों में से एक कारण यह था कि आपने उस व्यक्ति को अनजाने में या जानबूझकर (क्यूँकि समाज के द्वारा स्थापित रूधिबद्ध व्यवस्थाओं को मानसिक रूप से आपका शरीर भी स्वीकार कर चुका है) अलग-अलग आधार बना कर वर्गीकृत किया है और आपका व्यवहार भी उसी वर्गीकरण में (जिसका जन्म हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ) आने वाले लोगों के लिए बदलता रहता है। पुराने मानदंड, मूल्य, सामाजिक रीति-रिवाज और कर्मकांड लोगों के मन में इतनी गहराई से समाए हुए हैं कि वे आसानी से उनसे छुटकारा नहीं पा सकते हैं। दुर्भाग्य से ये सब व्यक्ति और देश के विकास को रोकते हैं।

इतिहासकार राम शरण शर्मा अपनी पुस्तक “India’s Ancient Past” में लिखते है- “प्राचीन अतीत का अध्ययन हमें कई प्रकार की पूर्वाग्रहों की जड़ों की गहराई से जांच करने और कारणों की खोज करने में मदद करता है। इसलिए प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययन न केवल उन लोगों के लिए प्रासंगिक है जो अतीत की वास्तविक प्रकृति को समझना चाहते हैं, बल्कि उन लोगों के लिए भी प्रासंगिक हैं जो एक व्यक्ति और राष्ट्र के विकास में बाधा डालने वाली बाधाओं की प्रकृति को भी समझना चाहते हैं।”

किताबें हमें बहुत कुछ सिखाती है। उन्हें लगातार पढ़ते रहिए।

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17-12-2021
Rahul Khandelwal


 

मेरा कोना।


एक कोना है मेरा भी,
उसका भी, तुम्हारा भी।
जहाँ बैठ कर मेरी क़लम से निकली स्याही,
उससे लिपटे पन्ने से कभी झूठ नहीं कहती।
वो किताब, जिसके रंग की,
दोहराने से उस पर पड़ी उन सिलवटों की,
मेरी आँखों को अनकही एक आदत-सी हो गई है।

दहलीज़ के इस पार मेरा कोना हैं, जहाँ हर शाम मैं इस आस में वापस लौट आता हूँ कि आज अपनी मेज़ पर रखे उस कोरे काग़ज़ पर बिखरी इतिहास की उन झूठी परतों को स्याही में लिपटी अपनी क़लम से साफ़ करूँगा।

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15-11-2021
Rahul Khandelwal
 

जब समय दिया इन्हें तो कुछ यूँ बहने-सी लगी आँखें जैसे अब वो फ़िक्र से बुना हुआ जाल अलविदा कहने को आया है।


इन गुज़रते फ़िक्र भरे पलों में कुछ अनदेखे बेफ़िक्र क्षण भी थे-निश्छल, ख़ूबसूरत। और जब समय दिया इन्हें तो कुछ यूँ बहने-सी लगी आँखें जैसे अब वो फ़िक्र से बुना हुआ जाल अलविदा कहने को आया है और तब मालूम पड़ा कि मुझसे वो फ़िक्र मैंने खुद ही बाँधी हुई थी।

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30-10-2021

Rahul Khandelwal

 

जब भाषा लोगों को दर्जों में विभाजित करने लगे तो इंसान की मानसिकता पर गहरी चोट पड़ती हैं और साथ ही साथ उसके ख़ुद के लिए अनेक सवाल उठ खड़े होते है।


वो सवाल नहीं था, खीज थी उन माता-पिता के लिए जिन्होंने कभी तेरह की उम्र में चौखट की देहली पार करने पर रोक लगा दी थी कि आज और आज से विद्दा को नहीं बल्कि बासनों (बर्तनों) को तुम्हारी ज़्यादा ज़रूरत है। कुर्सी पर बैठा था और मुँह पीछे की तरफ़ था जब आप अपनी व्यथा और उसके कारण आई अनंत असमर्थताओं का वर्णन कर रही थी। पता नहीं वे सवाल थे या कही गई मन की बात जिसने पल भर के लिए मेरे सामने कई सवाल खड़े कर दिए। आज हम ऐसे सिस्टम से घिरे हुए है जहाँ हम अपने विचारों को भूलकर हर दूसरे देश और उसकी संस्कृतियां और तहज़ीबों को आए दिन स्वीकार करते चले जा रहे है। जब भाषा लोगों को दर्जों में विभाजित करने लगे तो इंसान की मानसिकता पर गहरी चोट पड़ती हैं और साथ ही साथ उसके ख़ुद  के लिए अनेक सवाल उठ खड़े होते है और ख़ासकर तब जब अपने ही उन्हें ये महसूस कराने लगे कि हमारी भाषा आपकी भाषा के मुक़ाबले अव्वल दर्जे की है। शायद मैं समझ पाता हूँ कि क्यूँ देश के दूर-दराज अनुसूचित क्षेत्रों में रह रहे लोग अपने लिए भाषा के आधार पर नए राज्यों की माँग करते है। जहाँ अपने कल्चर को छोड़कर परदेसी कल्चर को अपनाया जाएगा वहाँ ऐसे क्षेत्रों का जन्म लेना तय है।

और रही बात माँ की तो उनसे हमने कहा कि जब अंग्रेज़ी का कोई शब्द समझ ना आए तो ख़ुद पर ग़ुस्सा ना करे, जो भाषा समझ आती है उसे सीखिए। इसमें शर्म कैसी।

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19-10-2021
Rahul Khandelwal


 

कर्मयोग



आपके कर्म आपको सदा के लिए जीवित रखते है।

बुला कटघरे में, अब क़लम भी दोषी ठहराई गई
ना वक़ील की माँग की, ना क़सम गीता की दिलाई गई

इस्तीफ़ा देने से इंकार किया, बिखेरेंगे सच ये फ़ैसला लिया
बरी अदालत में हो गई, सरेआम फिर शहीद हुई

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17-07-2021
Rahul Khandelwal

Note: This piece is dedicated to Gauri Lankesh, Danish Siddiqui and many others who have spoken for truth and justice.


 

तमस स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व मार्च-अप्रैल १९४७ में हुए भीषण साम्प्रदायिक दंगो की पाँच दिन की कहानी है।


कुछ कहानी के पात्र भूलाए नहीं भूलते। जितने दिन आप कोई भी किताब पढ़ते है, उस से जुड़े पात्रों से आप बातें करने लगते है और शायद किताब ख़त्म होने के बाद भी। किताब पढ़ते वक़्त आप कई तरह-तरह के सवालों से जूझने लगते है जिनके जवाब लेखक कभी-कभी आख़िरी पन्ने तक भी नहीं देता। और किसी भी लेखक के लिए इस से ज़्यादा संतुष्ट करने वाली बात भी क्या होगी कि पाठक किताब पढ़ कर सवालों से जूझ रहा है। मतलब कि आप वाक़ई में किताब पढ़ रहे है, और लेखक का लिखना व्यर्थ नहीं गया।

‘तमस’ से मालूम पड़ता है कि कई बार किस तरह सत्ताधारी लोग अपने मत के लिए लोगों के बीच साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति को पैदा कर उसका सहारा लेकर उन्हें बाँटने की कोशिश करते है। और ये आदत सत्ता में बैठे लोगों की सिर्फ आज की ही नहीं है। स्वतंत्रता पूर्व पंजाब में एकसाथ रहने वाले हिंदू-मुस्लिम एक दूसरे के हिस्सेदार बनते थे परंतु ब्रिटिश नीति के कारण माहौल में साम्प्रदायिक तनाव फैल जाता है। तमस स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व मार्च-अप्रैल १९४७ में हुए भीषण साम्प्रदायिक दंगो की पाँच दिन की कहानी है।

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26-06-2021
Rahul Khandelwal


 

मनुष्य ने ख़ुद को डर से बुनी हुई कई प्रकार की चादरों से ढ़का हुआ है। वो सच को लोगों के समक्ष लाने में डरता हैं।


कई बार कैसे आंखों के सामने घटती घटनाओं को हम जान बूझकर या अनजाने में देख नहीं पाते या कहिए कि हिम्मत (कोशिश) नहीं करते देखने की। मनुष्य ने ख़ुद को डर से बुनी हुई कई प्रकार की चादरों से ढ़का हुआ है। वो सच को लोगों के समक्ष लाने में डरता हैं। कहीं–कहीं ऐसा करने में उसका हित भी छिपा है लेकिन वो इसे स्वीकारता नहीं और स्वीकारने में डरता है कि उसकी विवशता और दुर्बलता सबके सामने ना आ जाए। अब वो इसी गुत्थी में उलझा रहता है। यहीं मनुष्य व्यवहार है।

'आपके हित' और 'परिणाम में उस से पैदा होने वाले डर' का आपस में गहरा रिश्ता होता है। इतना कि आप चाह कर भी, सब कुछ जानते-बूझते हुए, सच का साथ नहीं दे पाते और उन व्यवस्थाओं का साथ देने पर मजबूर हो जाते है जिनका वास्ता अधर्म से है, झूठ से है। यह प्रक्रिया आपको डर के इतना निकट ले जाती है कि आप चाह कर भी आंखों पर पड़ी (बंधी) उन पट्टियों को हटाना नहीं चाहते ताकि आप सच का सामना ना कर सकें। आप दुर्बल बनने पर विवश हो जाते है।

आप तमाम धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण देते हुए कह सकते है कि सत्य की कोई एक परिभाषा नहीं है। ठीक है, मुझे इस से कोई परहेज़ भी नहीं है और ना ही कोई हर्ज़। लेकिन मेरा सवाल उस 'सार्वभौमिक सत्य' के संदर्भ में है जो अपनी जांच और सत्यापन के लिए किसी ग्रंथ की गवाही की मांग नहीं करता। क्या वो सत्य भी अप्रासंगिक हो सकता है? क्या आप उसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े कर सकते है? अगर हां, तो निश्चित ही आपका इसमें कोई निजी हित छिपा है।

जब कोई व्यक्ति, समूह या संगठन 'सार्वभौमिक सत्य' की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करने (उठाने) लगे या उसे स्वीकारने से इंकार करने लगें, तो समझ लीजिए ऐसा करने में उसका निजी स्वार्थ छिपा है।

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Originally written on 28-12-21; Revised on 02-12-23
Rahul Khandelwal
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Notes:
1. The picture is taken from internet.
 

जब बिलखते मन ने उसकी दबी हुई बेचैनी को ले जाकर तुम्हारी झोली में गिर जाने की इजाज़त माँगी है, तुमने हर दफ़ा बेझिझक होकर फैलाया है उसे कि थोड़ा दर्द कम हो।

मेरा बुरा, अच्छा समय तुमसे बाँटा है हर दफ़ा। जब बिलखते मन ने उसकी दबी हुई बेचैनी को ले जाकर तुम्हारी झोली में गिर जाने की इजाज़त माँगी है, तुमने हर दफ़ा बेझिझक होकर फैलाया है उसे कि थोड़ा दर्द कम हो। तुम्हारी मेज़, उसपर बिखरा तुम्हारा सामान, मैं दिन में दो-चार बार समेट कर रख देता हूँ कि इस सब के बीच दरवाज़े के पीछे से मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है उसी थोड़े ग़ुस्से और उसमें मिली वो दबी हँसी के साथ। मैं नीचे वाले कमरे में अब ज़्यादा नहीं बैठता कि वहाँ जब खिड़की खोलता हूँ तो कमरे में छनती रोशनी अंधेरे को तो मिटा देती है पर तुम्हारी मेज़ के सामने रखी कुर्सी पर लिपटे अंधेरे को वो चाह कर भी अपने में समा नहीं पाती, अब उस कुर्सी पर अंधेरा बिखरा हुआ रहता है।

मेरे मन की व्यथाएँ इस आस में कि तुम हो यहाँ वो अलमारी में तह लगे कपड़ों में कभी-कभी तुम्हारे आँचल को ढूँढती है कि इसकी झोली बना इसमें गिरने की इजाज़त तुमसे माँग सके।

तुम्हारा इंतज़ार और याद दोनों करता हूँ। प्यार भेज रहा हूँ।
भाई।

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23-08-2021
Rahul Khandelwal


 

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...