Sunday, January 2, 2022

तमाशा



'तू सिखावेगा इबजा हमें कानून के होवे है। मुरौबत करने से मुरौबत मिले है लड़के, ई बात हमारी गाँठ बाँध के रखले', कुढ़ाते हुए सरपंच जी चबूतरे से उठ खड़े हुए। ताव इतना कि लाठी दे पटकी, मानो ये दांव-पेंच हमारे लिए था, मगर तर्क-वितर्क में तो हम भी उनसे आगे थे। ना खुद चित्त हुए और ना अपने आदर्शों को होने दिया, डँटें रहे।

"क्या सोचने को दुनिया में कुछ ना बचा है अब जो पहनावे और तौर-तरीकों से इंसान तुलने लगे?", जवाब दो। आखिर गलती क्या है मेरी। अनगिनत चीज़े है दुनिया में करने को, फिर क्यूँ बांधे बैठे है सब खुद को एक चकोरे में।

'बहुत बोले हे रे छोरा', 'ऐसे होजावै है सहर जा के', 'भाई ढ़ील तब तक दो जब तक पतंग दिखे है', भरी पंचायत में बापू पर आक्रमण। बाई तरफ घूँघट को थोड़ा नीचे सरकाए माँ सहमी बैठी मानो घूंघट में से तानों की चोट थोड़ी कम लगेगी।

'सरेआम अपना तमासा बनते देखें, ये ही दिन रह गया था बस।'
पंचायत न सही तो घर ही सही, वहाँ ख़त्म न हो और यहाँ शुरू। चाचा, ताऊ क्या पीछे हटने वाले थे, बापू को ज़लील करने का मौका जो मुफत में मिला हैं, बढ़-चढ़ के आगे आए।

बदलाव चाहते है मुझमे, बदलाव। गौर से सुनिये ज़रा, 'मुझमे' खुद में नहीं।
क्या दूँ इन्हें? अपनी कुर्बानी या अपनी आवाज़?

फिर डमरू बजाता हुआ असली तमाशे वाला चबूतरे की ओर आता दिखा, शाम हो चुकी थी।

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18-03-2017
Rahul Khandelwal

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...