Tuesday, October 24, 2023

योग्य आंखों की अयोग्य दृष्टि

 


मुस्कुराहट, जान-बूझकर, कि जब भी आए

मानो बहुत कुछ ओझल कर जाए

शायद थोड़ा गम, थोड़ी बेबसी भी

सच या झूठ? अभिनय करने वाला जानता है


अभिनय का स्वभाव भी ऐसा                                                    

कि करने वाले और देखने वाले के लिए भिन्न है

इतना कि वास्तव को नक़ल में तब्दील करने की क्षमता है इसमें


क्या हम

मुस्कुराते हुए चेहरे के पीछे की बेबसी को

अब देखने में असमर्थ हो गए है?


चारों ओर इंसान ही इंसान है

फिर भी इंसान कहीं नहीं

बस किसी कोने में दुबकी

थोड़ी इंसानियत दिख जाती है कभी-कभी


लेकिन कुछ सिकुड़ी हुई, थोड़ी डरी हुई भी

जिसके पास बची है अब, सिर्फ़ बेआवाज़ चीख

वो घुलती नहीं, मिलती भी नहीं लोगों से अब

ताकि बची रहे उसमें उसकी इंसानियत


कि डर इस बात का है उसे कि उसकी बची हुई इंसानियत

वर्तमान में उन मनुष्यों के बीच कहीं गुम ना हो जाए

जो अब मनुष्यता को बहुत पीछे छोड़ आए है कहीं


आज का मानव तराज़ू का इस्तेमाल अधिक करता है

वो आदी हो गया है हर चीज़ को तोलने का अब

कि बस वो जूझता रहता है

'वास्तविक सत्य' और 'अपने हितों के बचाव' के बीच

और कुछ नहीं

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23-07-23

Rahul Khandelwal

सभी अनुभव समय के साथ गुज़र जाया करते है। कुछ छोड़ जाते है, तो बस हमेशा के लिए 'कुछ किस्म के दृष्टिकोण'।


जीवन की गुज़रती हुई इस राह पर, हर बार थोड़ी दूर चलने के बाद एक आईना मेरे सामने आ ही जाता है और हर बार जब उसके सामने आकर खड़ा होता हूं तो दूर कहीं पीछे की तरफ़ अतीत से जुड़ा हुआ एक बिंब उसमें नज़र आता है। यह सोचकर कि रास्ते में पड़ने वाले अगले आईने में यह बिंब मौजूद नहीं होगा, मैं अपने क़दमों की रफ़्तार को अधिक तेज़ बढ़ा लेता हूं। लेकिन बीतता कुछ भी नहीं, सब कुछ स्थिर-सा मालूम दिखाई देता है- अतीत भी और उससे जुड़ा बिंब भी।

"व्यक्ति के जीवन से जुड़े ख़राब अनुभव, उसके ज़हन में कहीं बहुत भीतर, घटना से संबंधित पात्रों के लिए एक किस्म का दृष्टिकोण गढ़ देते है। वक्त और दुःख, समय के साथ गुज़र जाया करते है, किंतु ये दृष्टिकोण उस पीड़ित व्यक्ति के साथ हमेशा रहता है, उसकी अंतिम सांस और मृत्यु तक।"

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24-10-23

Rahul Khandelwal 

#Akshar_byRahul

Monday, October 23, 2023

सहज और सरल होने के लिए जटिलताओं और विरोधाभासों से होकर गुज़रना पड़ता है।

 


जितनी दफ़ा देखता हूं, वो अकेला ही कहीं दूर खड़ा हुआ नज़र आता है। वो कई रूपों में, अलग-अलग नाम से, समय के अलग-अलग अंतराल (पड़ाव) पर मौजूद है, परंतु उसके (उनके) जीवन का निष्कर्ष किसी दूसरे से अधिक भिन्न नहीं। जीवन से जुड़ी तमाम प्रकार की एक जैसी-सी पीड़ाओं, समस्याओं, जटिलताओं और विरोधाभासों से गुज़रकर आदमी एक जैसे-से निष्कर्ष तक ही पहुंचता है जिसके मूल रूप में अधिक अंतर नहीं होता।

जब कभी मैं उसके मानसिक रूप और विचारों को अन्य किसी माध्यम से समझने का प्रयास करता हूं, तो वो दूर से मुझे कई प्रकार की उलझनों में उलझा हुआ प्रतीत होता है कि मैं सोचने पर विवश हो जाता हूं कि इस व्यक्ति ने अपने द्वारा खोजे गए सत्य को पाने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना किया होगा और ये व्यक्ति यहां से देखने पर कितना जटिल-सा दिखाई पड़ता है। जैसे-जैसे मैं उसके जीवन के अंतिम पड़ाव, उसके निष्कर्ष और उसकी ओर कदम बढ़ाता हूं, वैसे-वैसे मैं ख़ुद ही के ऊपर से अपने द्वारा ढ़की हुई पूर्वाग्रहों और पूर्व धारणाओं की चादर को उतारता चला जाता हूं। नज़दीक से, ये अलग-अलग रूपों वाले व्यक्ति, जिनके सफ़र का अंत अलग–अलग राहों से गुज़रने के बाद भी एक ही सी मंज़िल पर आकर समाप्त हुआ, कितने सहज और सरल से दिखाई पड़ते अथवा प्रतीत होते है। ये मुझे इनसे मिलने के बाद मालूम पड़ा।

सहज और सरल होने के लिए जटिलताओं और विरोधाभासों से होकर गुज़रना पड़ता है।

[ तस्वीर और लेखन का प्रत्यक्ष रूप में (आपस में) कोई संबंध नहीं, लेख का अधिक संबंध उन महान व्यक्तियों से है जिन्होंने अपने जीवन में संघर्ष, तपस्या और अपने निजी अनुभवों के आधार पर मानव सभ्यता की दार्शनिक विचारों की श्रृंखला में अपना योगदान दिया और सत्य के अर्थ को समझाने का प्रयास किया। ]

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10-05-23

Rahul Khandelwal

#Akshar_byRahul


Note: The picture is taken by me.

Saturday, October 21, 2023

"आत्मबोध के महत्व" को कम करके आंकना एक बड़ी भूल हो सकती है।

 


विभिन्नताओं से घिरे माहौल है,
कुछ को रौशन तहख़ानों ने कैद किया,
कुछ अंधकार को तरस गए।।

हर एक परिस्थिति हर एक व्यक्ति के लिए एक सी नहीं होती, विकल्पों के प्रति हमारा आकर्षण और तदनुसार हमारा चुनाव आगे की राह को तय करता है। हमारा ये सोचना कहां तक उचित है कि हम एक ही समय में अंधकार और रोशनी का चुनाव कर, अपने संकल्प को पूरा कर सकते है? क्या हम ख़ुद को उस एहसास से अवगत कराने में सक्षम है कि जिन कार्यों का औचित्य हम सिद्ध करने की कोशिश करते है, वो पूरे तरीके से न्यायोचित है भी या नहीं?

विचार कीजिए।

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21-10-23

Rahul Khandelwal 

#Akshar_byRahul

Wednesday, October 18, 2023

आपका 'सत्य' किस पर निर्भर है- आपके अंतःकरण पर या परिस्थितियों द्वारा निर्मित वातावरण पर?


क्या 'सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों द्वारा निर्मित वातावरण की क्षमता' 'मनुष्य के अंतःकरण की क्षमता' से अधिक होती है, जिसके परिणामस्वरूप वो 'सत्य और असत्य' के बीच अंतर और चुनाव करने जैसे फैसलों का निर्णय करता है? दोनों विकल्पों में से किस विकल्प में 'धर्म' का तत्व अधिक मौजूद है अथवा नैतिक मूल्यों का हनन नहीं है? किस विकल्प का सहारा लेकर (या कौन सी राह चुनकर) आप सत्य के अधिक निकट पहुंच सकते है?

जिस 'सत्य' की गवाही आपका अंतर्मन देता है, क्या आपके द्वारा वो चुना गया 'सत्य' हर प्रकार के बंधन से मुक्त है? क्या वो तलाश किया गया 'सत्य' किसी भी प्रकार की परिस्थितियों का परिणाम नहीं? क्या उसकी निर्भरता सिर्फ़ आप तक सीमित है?

हर समय की परिस्थितियां अपने समय के 'हित और अहित' को परिभाषित करती है जिसका सीधे तौर पर प्रभाव उस समय में रह रहे लोगों के द्वारा चुने गए 'सत्य और असत्य' पर पड़ता है। लेकिन हर समय में लोगों का एक ऐसा वर्ग भी मौजूद होता है जो 'सत्य और असत्य' का चुनाव करते समय हर प्रकार के बंधन से मुक्त होने की जद्दोजहद में लगा होता है, जो निरंतर अपने अंतःकरण के अस्तित्व को बचाने में संघर्षरत रहता है।

आप किस पाले में खड़े है? विचार कीजिए।

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18-10-23

Rahul Khandelwal 

#Akshar_byRahul

Wednesday, October 11, 2023

Revivalism doesn't mean- Waking up the dead!


"If a political ideology of a regime backed by leaders associated with the same state, allows revival of traditions and cultural values of their respective religion, that doesn't mean, they do believe or consider the fact that their culture is already dead and that's why they are reviving the same. It is completely a false interpretation."

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11-10-23

Rahul Khandelwal

Tuesday, October 10, 2023

आपकी पोशाक और आपका मुखौटा आपके स्थायित्व का कारण भी बन सकता है।


जब वो थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे मालूम पड़ा कि हर देश के राजनैतिक बाज़ार में अलग-अलग रंग की चादरें प्राप्त करने का अवसर मिलता है। लेकिन चादरों के चुनाव से पहले उसके स्वरूप को समझने के लिए गहन अध्ययन भी करना पड़ता है, ये उसे नहीं मालूम था। तो समाज में कुछ शिक्षित वर्ग, बुद्धिजीवी, विशेषज्ञों और राजनैतिक तौर पर प्रतिष्ठित लोगों के द्वारा चुने हुए विकल्प को उसने अपना विकल्प बनाया और उसी के अनुसार चुनाव भी किया। 'शिक्षित और प्रतिष्ठित वर्ग' की परिभाषा का कोई एक पैमाना नहीं होता है, हर कोई इसे अपने हिसाब से परिभाषित करता है। तो चुनाव करते समय उसने भी अपनी ही सोची-समझी और गढ़ी हुई परिभाषा को आधार बनाया।

समय के हर दौर में नाना प्रकार की रोशनियों के अनेक माध्यम मौजूद होते है, जो इंसान को उसके भीतर पनप रहे अंधेरे को पहचानने से रोकते है ताकि वो उस अंधेरे को दूर ना कर सकें (मूल सत्य को ना जान सके)। हालांकि उस अंधेरे की पहचान कर पाना हर व्यक्ति के लिए इतना सरल भी नहीं, इसलिए हमारे बीच अच्छे शिक्षकों की मौजूदगी की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है, जो समय-दर-समय अपने शिष्यों को सही और गलत, सत्य और असत्य के बीच के फ़र्क को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए उनके विवेक की चौखट पर आ दस्तक दे दिया करते है, ताकि सही निर्णय का चुनाव किया जा सकें। हालांकि यह भी बहस का विषय है कि सही-गलत और सत्य-असत्य की परिभाषा क्या है। ख़ैर।

तो हुआ यह कि एक दिन उसने भी अपने शिक्षक (गुरु) को उसकी नए रंग की चादर के बारे में बताया जिसके चुनाव की ओर उसका झुकाव अधिक था। दोनों के बीच सवाल-जवाब हुए, थोड़ा विमर्श भी। उन्होंने अपने शिष्य से कहा "कि बतौर किसी भी अच्छे शिष्य का एक विवेकशील विचारक होने के नाते ये कर्तव्य है कि वो राजनैतिक बाज़ार में जाने से पहले किसी एक रंग की ही चादर को खरीदने का निर्णय लेकर प्रवेश ना करें। सही मायने में उसका कर्म हर रंग की चादर के स्वरुप को व्यापक रूप से समझना है, ना की औरों के अनुभव को आधार बनाकर सिर्फ़ किसी एक रंग की चादर को ओढ़ लेना बस है।"

उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा कि "तुम्हें यह भी समझने कि ज़रूरत है कि जिन प्रतिष्ठित लोगों को आधार बना कर तुमने अपनी परिभाषा को गढ़ा और तदनुसार अपने लिए चुनाव किया है, वो लोग जिस स्तर पर है, उन सभी की सामाजिक पहचान उनके द्वारा अलग-अलग रंगों की चादर ओढ़े हुए, समाज के बीच स्वीकार ली गई है और अब वही उनकी पहचान भी है। अब वो चाह कर भी अपनी-अपनी चादर को नहीं उतार सकते। इस बात का सख़्त ध्यान रखना।"

"आपकी पोशाक और आपका मुखौटा आपके स्थायित्व का कारण भी बन सकता है जिसका संबंध एक स्तर पर आपके हित और अहित से होता है," ये उसने उन दिनों जाना था। फिर आप चाहते हुए भी उसे उतार नहीं पाते।

राजनैतिक और बौद्धिक वर्गीकरण का आधार जब 'सिर्फ़ एक ही विचार' बन जाए और एक बार उन वर्गों को जब सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगे तो इसकी जड़ें बढ़ते हुए समय के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ गहरी होती चली जाती है, फिर उनमें बदलाव इतना सरल नहीं।

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31-07-23

Rahul Khandelwal 

#Akshar_byRahul

Tuesday, October 3, 2023

एक लंबे गुज़रे हुए अनुभव से प्रेरणा लेना और उसके अनुसार नियमित रूप से चलना किसी के लिए हैरत कर देने वाला दृश्य है तो किसी दूसरे के लिए आम।

 


नज़रियों की सीमा नहीं होती। बस ज़ुबान बदलने की देर होती है कि एक तरफ़ ये बदली नहीं और दूसरी तरफ़ नज़रिया बदल जाता है। दिल्ली सचिवालय मेट्रो स्टेशन के निकट कांस्टीट्यूशन क्लब में कल शाम करीब तीन सौ-साढ़े तीन सौ लोग रहे होंगे जिनमें युवा पीढ़ी भारी मात्रा में मौजूद थी। उन सभी में से कुछ ने अपनी मौजूदगी को 'हैरत' के साथ दर्ज भी किया जब बानवे वर्ष की आयु में एक प्रोफेसर मौजूदा परिस्थिति में भारत के राजनैतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में गांधी की प्रासंगिकता पर व्याख्यान देने के लिए डेढ़ सौ किलोमीटर दूरी का फासला तय कर क्लब के दरवाज़े पर पहुंच कर अपनी लाठी का सहारा ले पोडियम तक चल कर आता है।

मुझे मालूम पड़ा कि जिस व्यक्ति या दृश्य को हम सभी 'हैरत' भरे अंदाज़ से देखते है या उन तमाम बड़ी-बड़ी उपाधियों से लाद देते है, उसे पाने वाले लोग उसी प्राप्त हुए हैरत से भरे अंदाज़ या उपाधियों को ये कहकर आम बना देते है कि जीवन में मन, कर्म और वचन में सामंजस्य होना कितना अधिक महत्वपूर्ण है; वो आम बना देते है उन सभी प्राप्त हुई उपाधियों को ये कहकर कि मैं गांधीजी से उनके जीवन में उनके साथ हर समय मौजूद रहने वाले "स्पिरिट" से प्रेरणा प्राप्त करता हूं कि मुझे कुछ देर बाद मालूम पड़ा कि एक लंबे गुज़रे हुए अनुभव से प्रेरणा लेना और उसके अनुसार नियमित रूप से चलना किसी के लिए हैरत कर देने वाला दृश्य है तो किसी दूसरे के लिए आम। और इस प्रकार के सभी लोग वे है, जो असल मायनों में प्रेरणा प्राप्त करते है।



करीब आधे घंटे के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें एक शख़्स ने प्रोफेसर हबीब से पूछा कि 2023 में हम गांधीजी से क्या सीख सकते है। प्रोफेसर ने अपना माइक उठाया और उस शख़्स की ओर अपनी नमीं आंखों से देखा और कहा कि "इंसानियत और उसका महत्व", ये कहकर माइक रखा ही था कि सभी लोग तालियां बजाने लगे।

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03-10-23

Rahul Khandelwal

#Akshar_byRahul

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...