मुस्कुराहट, जान-बूझकर, कि जब भी आए
मानो बहुत कुछ ओझल कर जाए
शायद थोड़ा गम, थोड़ी बेबसी भी
सच या झूठ? अभिनय करने वाला जानता है
अभिनय का स्वभाव भी ऐसा
कि करने वाले और देखने वाले के लिए भिन्न है
इतना कि वास्तव को नक़ल में तब्दील करने की क्षमता है इसमें
क्या हम
मुस्कुराते हुए चेहरे के पीछे की बेबसी को
अब देखने में असमर्थ हो गए है?
चारों ओर इंसान ही इंसान है
फिर भी इंसान कहीं नहीं
बस किसी कोने में दुबकी
थोड़ी इंसानियत दिख जाती है कभी-कभी
लेकिन कुछ सिकुड़ी हुई, थोड़ी डरी हुई भी
जिसके पास बची है अब, सिर्फ़ बेआवाज़ चीख
वो घुलती नहीं, मिलती भी नहीं लोगों से अब
ताकि बची रहे उसमें उसकी इंसानियत
कि डर इस बात का है उसे कि उसकी बची हुई इंसानियत
वर्तमान में उन मनुष्यों के बीच कहीं गुम ना हो जाए
जो अब मनुष्यता को बहुत पीछे छोड़ आए है कहीं
आज का मानव तराज़ू का इस्तेमाल अधिक करता है
वो आदी हो गया है हर चीज़ को तोलने का अब
कि बस वो जूझता रहता है
'वास्तविक सत्य' और 'अपने हितों के बचाव' के बीच
और कुछ नहीं
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23-07-23
Rahul Khandelwal