Sunday, December 31, 2023

"क्या आपके अच्छे-बुरे अनुभव आपसे आपके 'वास्तविक मैं' को हमेशा के लिए छीन लेने का सामर्थ्य रखते है?"


उसकी पढ़ने की मेज़ पर शीशा रखा हुआ था कि अचानक उसकी निगाह ने चंद मिनटों के लिए ख़ुद को किताब से किनारा करते हुए शीशे की ओर देखा। इंसान के लिए ख़ुद को देखना भी कभी-कभी कितना चुनौती भरा हो सकता है, ये उसने उस दिन जाना था, मानो वो अपने ऊपर से परतें दर परतें उतार भीतर के अपने "मैं" को देखने से हिचकिचा रहा हो। सतह पर 'सत्य' निवास नहीं करता, वहां वो ओझल-सा प्रतीत होता हुआ दिखाई पड़ता है, उसे खोजने अथवा उसकी तालाश के लिए गहराई में उतरना पड़ता है। उसने कई दफा शीशा पलट कर रखने का प्रयास किया, परंतु नाकामयाब ही रहा। इंसान चाह कर भी ख़ुद से झूठ नहीं बोल पाता, ख़ुद को तसल्ली दे सकता है बस। ख़ैर।

निजी अनुभवों का स्वभाव भी कितना अजीब है, मानो इनमें इतनी क्षमता हो कि आपकी 'आज की राय क्या होगी' और 'फैसले लेने की निर्भरता' भी इसे अपना आधार समझ बैठती है और आप बात-बात में नियमों का सरलीकरण करने लगते है। लेकिन इसमें गलती आपकी भी नहीं, ऐसा करने के पीछे व्यक्तिगत अनुभावों की भूमिका अधिक होती है; दूसरा ये भी कि इंसान का बर्ताव भी मनुष्य और उसका स्वभाव बदलने से बदलता है।

क्या आपके अच्छे-बुरे अनुभव आपसे आपके 'वास्तविक मैं" को हमेशा के लिए छीन लेने का सामर्थ्य रखते है? मैं समझता हूं, ऐसा स्थायी रूप में या हमेशा के लिए नहीं होता, इसकी काल-अवधि कुछ समय के लिए ज़रूर इंसान से उसके "मैं" को छीन सकती है, लेकिन 'मन की वास्तविक त्वचा' को भला कौन छोड़ पाता है कभी। ये आसान नहीं, हां उसके अपने मन के भीतर द्वंद्व ज़रूर हो सकता है; दूसरा ये भी मुमकिन है कि वो अपने 'वास्तविक मैं' और 'खुद पर थोपे गए मैं' के बीच पैदा होने वाले विरोधाभासों में फसकर भी रह जाए परंतु अंततः उसका 'वास्तविक अथवा मूल मैं' ही बाकी सभी प्रकार की बनावटों पर हावी होगा।

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21-05-23

Rahul Khandelwal


Note: The picture is taken by me.

"Your surroundings tell how diverse your consciousness is."


"Less heterogeneity is found in small states, which are more homogeneous in nature, and the same can be seen even in their single state-sponsored transport vehicle. The consciousness of the people living in such states which is also homogeneous in nature, is driven by more or less the same elements, which further become one of the deciding factors behind their choice of food, dress, topics for talk, and behavior."

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29-12-2023
Rahul Khandelwal 

Saturday, December 30, 2023

"सही ज्ञान के अभाव में, सफ़र का अंत दुखों की चोखट पर आकर ही होता है।"


''घटनाएं कभी भी समय देख कर दस्तक नहीं देती। हम अनिश्चितताओं से घिरे हुए है। आप योजनाएं बना सकते है लेकिन इस अधिकार से वंचित होकर कि योजनाएं सफल होंगी या असफल। नियंत्रण की सीमाओं का सही ज्ञान ना हो या उसका अभाव हो, तो सफ़र का अंत दुखों की चोखट पर आकर ही होता है।"

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07.07.23
Rahul Khandelwal

Note: The picture is taken by me.

Friday, December 29, 2023

उन्होंने कहा कि "सब्र की अहमियत" से कीमती मुझे कुछ नहीं लगता।


पिछली रात ऐसे गुज़रती चली गई मानो दिन गुज़रा हो। समय का अभाव था, पांच बजे सोकर छः बजे उठना था, मैं इंटरव्यू के लिए लेट नहीं होना चाहता था।

अच्छे दोस्त जीवन में कम होते है, तुम्हारा साथ रहा दोस्त, एक कागज़ पर दर्ज कर तुम्हारी दी हुई सहायता को मैंने दाहिनी पॉकेट में रख लिया हैं। मैं इसे भूलना नहीं चाहता था, इसलिए। "दर्ज किए हुए शब्द याद में तब्दील होकर समय–समय पर दस्तक देकर आपके जीवन में अहमियत रखने वाले लोग और वस्तुओं की याद दिलाते है, यादों और इतिहास के बिना इंसान की पहचान अधूरी है, मानो वो किसी नए शहर में एक अजनबी की तरह हो। खैर।"

जी.टी.बी. से साकेत का सफर कब गुज़रा, पता ही नहीं चला। मैं लगातार रीडिंग में व्यस्त था। तैयारी के बाद जब बाहर निकला तो दिल्ली हर रोज़ की तरह उतावली नज़र आई, सुबह और शाम के समय शहरों की गति तेज़ हो जाती है, हर कोई समय को पकड़ने की जद्दोजहद में दिखता हुआ नज़र आता है। "कभी–कभी हम सत्य को जानते हुए भी, उसे नकार देना चाहते है। हम जानते है कि हम नाकामयाब होंगे, परन्तु बहुत–सी मानवीय आदतें आपके भीतर घर कर चुकी होती है। इंसानी स्वभाव है, सत्य को स्वीकार कर चलना हर किसी के बस में नहीं।" मैं सोच ही रहा था कि सामने से आता हुआ ऑटो दिखाई पड़ा, मैंने रुकने के लिए हाथ आगे किया (बढ़ाया)।

–जे.एन.यूं. जाना है, कितना लेंगे भैया?

–सौ रुपए लगेगा, बैठ जाइए।

पिछले वाले ऑटो से हिसाब की तुलना कर, मैं बैठ गया। हम कुतुब मीनार रोड से होते हुए गुज़र रहे थे, और मैं इतिहास से। तभी अचानक बिना इजाज़त लिए इतिहास और मेरे बीच होने वाली वार्ता का उल्लंघन करते हुए ("आपके और आपके विचारों के बीच बाहरी उल्लंघन होना आपके बस में नहीं, एक कहानी टूटी कि दूसरी शुरू हो गई, ये भी हमारे बस में नहीं, कहानियों से सीखना हमारे बस में है") उन्होंने कहा कि मैं पिछले बीस सालों से इस रूट पर ऑटो चला रहा हूं लेकिन अब समय बदल गया है, पहले जैसा नहीं रहा। शायद जब बीस साल पहले किसी और का इंटरव्यू रहा होगा, तब भी इन्होंने उसे ऐसा ही कहा होगा कि "अब समय बदल गया है"।

"इतिहास गवाही देता है इस बात की कि हर दौर में पिछली पीढ़ी वाले नई पीढ़ी (मौजूदा पीढ़ी) वाले को देख दुःखी हो उठते है कि अब इंसान पहले जैसे नहीं रहे।" खैर। इस सफ़र का भी पता नहीं चला कि कब गुज़रा। अंतिम में मैं एक सवाल कर बैठा कि–

–बीती हुई उम्र में सीखे हुए अलग–अलग पाठ में सबसे अहम और ज़रूरी पाठ आपको क्या लगता है?

–उन्होंने कहा कि "सब्र की अहमियत" से कीमती मुझे कुछ नहीं लगता, हम सभी को इसके महत्व को समझना और सीखना चाहिए।

दो सेकंड आंख बंद और पांच सेकंड के मौन की वजह से पैदा हुई चुप्पी को तोड़ते हुए उन्होंने कहा कि ये लो हम पहुंच गए। साकेत से जे.एन.यू. का सफ़र कब गुज़रा, पता ही नहीं चला। मैं लगातार सुनने में व्यस्त था।

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01-04-23

Rahul Khandelwal

#Akshar_byRahul

Wednesday, December 27, 2023

"डोर को भी इस बात का एहसास अंततः हो ही जाता है कि किस रंग के मोती का चुनाव करना उसके लिए उचित है।"


“डोर का सिरा मोतियों को पिरोहने के लिए हर मकान की चौखट पर आकर नहीं रुकता। समय के साथ परखने और जीवन से जुड़े निजी अनुभवों के बाद उसे भी इस बात का एहसास अंततः हो ही जाता है कि किस रंग के मोती का चुनाव करना उसके लिए उचित है। ये प्रक्रिया बिना किसी बनावट और नियम के स्वतः ही होती है और साथ ही साथ समय की मांग भी करती है।”

इस पर विचार करने की ज़रूरत है कि क्या कैंसल कल्चर के नाम पर सभी रूढ़िबद्ध धारणाओं को खारिज किया जा सकता है? ऐसा करना कहां तक उचित है? ऐसा ज़रूरी नहीं है कि किसी अवधारणा को सैद्धांतिक रूप में समाप्त करने से, उसकी व्यवहारिकता भी समाप्त हो जाती है। रूढ़िबद्ध धारणाओं को हर बार किसी खांचे या वाद में बांधकर खारिज नहीं किया जा सकता। उनके असल महत्व को समझने के लिए, उन्हें उनके बनने की प्रक्रिया के संदर्भ में अधिक देखने की ज़रूरत होती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक अनुभवों के आधार पर किए गए सरलीकरणों को कृत्रिम धारणाओं में तब्दील कर दिया गया हैं? प्रेमचंद ने सही कहा है कि संगत का आधार विचार, व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी होता है। क्या आप इसे भी खारिज कर सकते है?

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26-12-23
Rahul Khandelwal

Friday, December 15, 2023

काश वो समझ पाते कि दैवीय शक्ति का सहारा लेकर, विरोधाभासों को छिपाया नहीं जा सकता।

ब्रजभूम पर इतिहासकार इरफ़ान हबीब द्वारा लिखी किताब से मालूम पड़ा कि मुग़लकालीन भारत में ‘हैमलेट’ यानि की छोटे गांव को ‘नगला’ कहा जाता था। जिस इलाके से मैं ताल्लुकात रखता हूं, उस गांव के नाम के पीछे छिपे संदर्भ और इतिहास की जानकारी मुझे इस किताब को पढ़ने के दौरान हुई। कितनी ही दुनियाएं खाली पड़ी रहती है इंसान के जीवन के इर्द-गिर्द, लेकिन हमारी चेतना, जिसका निर्माण नाना प्रकार के कारणों से होता है, उसी एक स्वयं-निर्मित छोटी-सी दुनिया में ख़ुद को केंद्रित किए हुए रहती है और लगभग पूरा जीवन व्यतीत कर देती है। ध्यान से देखने का प्रयास करें तो मालूम पड़ता है कि कभी-कभी, कुछ हद तक व्यवस्थाएं भी इंसान की चेतना को नियंत्रण कर संकुचित बना देती है, इतना कि कई बार हम अपने सबसे नज़दीकी वस्तुओं से ‘क्या, क्यों और कैसे’, ये सब सवाल करने की जहमत ही नहीं उठाते। हमारी चेतना के निर्माण की प्रक्रिया ही ऐसी है कि शायद हम इन सवालों के महत्व को ज़रूरी समझते भी नहीं है।

ख़ैर, तो बात कुछ इस प्रकार है-

गांव नगला इमारती¹, पोस्ट ऑफिस मिलाप नगर, रुड़की। मैंने पिछले पच्चीस सालों में इस गांव के आस पास कई-से परिवर्तन होते हुए देखें है। जैसे, पहले जब आप ‘ढंडेरा’ नामक कस्बे से होते हुए इस गांव की ओर जाती हुई सड़क से होकर जाते थे, तो आप देखते थे कि सड़क के दोनों किनारों पर भारी संख्या में घने पेड़ मौजूद थे, दूर-दूर तक खेत-खलिहान आपको दिखाई देते थे। एक प्रकार से ऐसा प्रतीत होता था जैसे आप एक घने जंगल से होकर गुज़र रहे हो। आज, जब उसी सड़क से गुज़रता हूं तो काफी साफ़ दृष्टि से देख पाता हूं कि सड़क के किनारे दोनों ओर स्थित वो छोटा-सा जंगल, दूर-दूर तक फैले खेत और खलिहान अपनी सघनता को खो चुके है। वहां पर बहती हवा, जो अब कम दबाव के साथ चेहरे को छूती है, एक प्रकार की ख़ामोशी को साथ लिए इस बात की गवाही देती है कि उसने अपनी पहचान से जुड़ी विशेषताओं को अब कम कर दिया है। अगर मैं अपने गांव के आस-पास किसी क्षेत्र में कोई भारी परिवर्तन नहीं देख पाया हूं (या बहुत कम, ना के बराबर देख पाया हूं) तो वो है सामाजिक व्यवस्था का ढांचा।



शोध की कक्षाओं में हम सभी अनेकों वाद, वैचारिकी और दार्शनिक विचारधाराओं से ख़ुद को अवगत कराते है और इस प्रक्रिया के चलते कभी-कभी हम अपने अवचेतन में कहीं दूर दुबकी बैठी किसी घटना पर पुनर्विचार करने को भी विवश हो जाते हैं। घटनाएं-दुर्घटनाएं सभी के साथ घटती है। विचार और विमर्श का हिस्सा, उन्हें वह फ़र्क बनाता है, जो इस बात में निहित होता है कि आप कौन-से और कितने प्रकार के चश्मे से उसका मूल्यांकन करते है।

मैं वापस गांव पर लौटता हूं-

आज की तारीख़ में इस गांव की आबादी करीब छः से सात हज़ार है जिसमें मुसलमान आबादी बहुमत में है। यहां रहने वाले दोनों ही धर्म (हिंदू और मुसलमान) के लोगों में जातीय विविधता शुरू से ही मौजूद रही। जैसे, हिन्दू परिवारों में यहां पंडित, त्यागी, बढ़ई, गौर, कुम्हार, नाई, झीवर, दलित (भंगी, चमार) आदि जातियों के लोग यहां रहते है। इसी तरह से मुसलमानों में भी जातीय विविधता देखने को मिलती है।



मुझे एक किस्सा याद आता है कि झीवरों के परिवार में से एक सदस्य, सोनू, बागड़ यात्रा पर राजस्थान गए। मान्यता है कि इस यात्रा से लौटने के बाद घर पर बड़े भोज यानि की ‘कंदूरी’ का आयोजन किया जाता है, जिसके प्रसाद के लिए लोगों को निमंत्रण देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। सभी लोग अपनी इच्छा से या कहिए कि दैवीय डर के कारण भी इस तरह के आयोजनों में हिस्सा लेने पहुंच जाते है, फिर चाहे आयोजक किसी भी जातीय समूह से संबंध ही क्यूं ना रखता हो। और ऐसा हुआ भी। तो सुरेश त्यागी भी अपने दोनों पोतों को लेकर सोनू के घर पहुंचे, जिनके घर के एक कोने में पूजन भी चल रहा था। सभी लोग बारी-बारी से मत्था टेकते, आशीर्वाद लेते और कंदूरी का प्रसाद ग्रहण करते। त्यागी जी ने अपने दोनों पोतों से मत्था टेकने के लिए कहा, सोनू की माँ ने बिना झिझके दोनों बच्चों के सर पर आशीर्वाद के रूप में अपना हाथ फेरा। उसके बाद उन लोगों ने भी बाकी सभी लोगों के साथ मिलकर कंदूरी का प्रसाद ग्रहण किया। सच्चे मन से आशीर्वाद देने वाला व्यक्ति धारणाओं को साथ लेकर नहीं चलता, इस तरह के भाव बिना किसी पूर्वग्रहों और रूढ़िबद्ध धारणाओं की इजाज़त लिए बिना स्वतः ही भौतिक रूप में बदल जाया करते है।



वहीं दूसरी तरफ़ मुझे वो दूसरा किस्सा भी याद आता है जब त्यागी जी ने गांव में ‘शेरा वाली माता के रात्रि जागरण’ के अगले दिन भंडारे (भोज) का आयोजन किया जिसमें प्रसाद ग्रहण करने की व्यवस्था कुछ जातीय समुदाय के लोगों को छोड़कर बाकी सभी के लिए एक जगह पर की गई थी, जहां लोगों के बैठने के लिए कुर्सियां भी मौजूद थी। उन्हीं में से दो कुर्सियों पर बैठकर त्यागी जी के दोनों पोतें भी खाना खा रहे थे। दरवाज़ें से बाहर निकलने पर ध्यान गया तो साइड में देखा कि दूसरे बच्चों के साथ सोनू के दोनों बेटे चटाई पर बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। ये कैसी विडंबना है कि एक तरफ़ एक व्यक्ति ईश्वर की आस्था में या उसके डर से अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलवाने किसी तथाकथित नीची जाति वाले व्यक्ति के यहां जाता है और दूसरी तरफ़ वही व्यक्ति अपने यहां ईश्वर की आस्था के नाम पर भोज का आयोजन कर किसी तथाकथित नीची जाति वाले व्यक्ति के बच्चों को अपने घर के भीतर दाख़िल भी नहीं होने देता।

काश! समाज में मौजूद इस तरह के लोग, समझ पाते कि दैवीय शक्ति का सहारा लेकर, विरोधाभासों को छिपाया नहीं जा सकता है।



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15-12-23
Rahul Khandelwal 

Notes & References: 
1) 1st picture shows Dhandhera/Laksar road heading towards my village, i.e., Nagla Imarti (as the same is mentioned in my blog as well).

2nd, 3rd & 4th picture is taken from internet.




Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...