Friday, January 26, 2024

उन्होंने झूठ इसीलिए कहा, क्योंकि वो सच को जानती है।


शाम का वक्त हो चला था। ठंड के मौसम के नज़दीक होने का एहसास इस वक्त ज़्यादा होने लगता है जो की अब धीरे-धीरे होने भी लगा था। अक्षत हर रोज़ की तरह मेज़ के सामने रखी हुई कुर्सी पर विराजमान किताब के पन्ने पलटने में व्यस्त था। कुछ ही देर बाद अपने समय के मुताबिक दीदी भी आ गई और रात का खाना बनने की तैयारी होने लगी।

दो इंसानों के बीच भरोसे की भावना का जन्म यूं ही अनायास ही नहीं होता। मानवीय रिश्तें, गुज़रते हुए समय और एक लंबी प्रक्रिया के चलते गहराते चले जाते है। ‘भरोसा’, जब स्थायी रूप ले लेता है, तो आप अपनी निजी बातचीत साझा करने के लिए सामने वाले व्यक्ति से उसकी इजाज़त नहीं मांगते। एक समय के बाद ख़ुद ही आपको इस बात का एहसास हो जाता है कि अब आपके और सामने वाले व्यक्ति के बीच किसी भी प्रकार का कोई पर्दा नहीं है।

अक्षत भीतर वाले कमरे में बैठा पढ़ाई कर रहा था और दीदी किचन में खाना बना रही थी। उन दोनों के बीच कब और कैसे बातचीत शुरू हुई, मालूम नहीं। किसी बातचीत से निकली हुई कोई महत्वपूर्ण बात इंसान के ज़हन में रह जाती है, लेकिन कभी-कभी हम चाहते हुए भी बातचीत के सिरे को खोज नहीं पाते कि हम इसके अंतिम छोर तक कैसे पहुंचें। बातों के बीच अचानक ही उन्होंने अक्षत से कहा, “भैया, मैं और मेरे पति साथ में नहीं रहते है। मैं यहां दिल्ली में अपने दोनों बच्चों के साथ रहती हूं और वो अलग रहते है।”

(कुछ क्षण के लिए अक्षत सोचने लगा कि इन्होंने मुझसे शुरुआत में झूठ क्यों कहा, क्या वजह रही होगी? इसी सब के बीच उसे ध्यान हो आया कि बीच में एक दिन जब उसे बुखार था तब भी दीदी ने अपने यहां से यह बतलाकर दवा भिजवाई थी कि मेरे पति फार्मेसी में काम करते है, तो हमारे यहां दवा वगैरा रहती है। कई बार इंसान झूठ का सहारा इसीलिए भी लेता है क्योंकि वह समाज के सच को भली-भांति जानता है।)

वो आगे अपने पति से अलग रहने और इस बात को लोगों से छिपाने के कारण बताने लगी। उन्होंने कहा- “भैया, जहां मैं पहले किराए के मकान में रहती थी, वहां आस पास के लोगों को यह मालूम पड़ गया था कि मैं और मेरे पति साथ में नहीं रहते है। यह जानने के बाद उस मोहल्ले में रहने वाले लोगों ने मेरे साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। आप समझ सकते है कि एक महिला को अकेला समझकर समाज में रहने वाले लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते है। जब तक कोई महिला किसी पुरुष के अधीन नहीं है, तो उसकी स्वायत्तता को यह समाज स्वीकार नहीं करता है; तब तक, वह महिला एक वस्तु के समान है। और जैसे ही किसी पुरुष की छाया के नीचे उस महिला को लाकर खड़ा कर दिया जाता है, तो उसके अधिकार को भी उसी पुरुष के साथ जोड़ दिया जाता है और बाकी सबको यह बतला दिया जाता है कि अब आप सभी अपने अधिकार को इस एक महिला पर प्रयोग नहीं कर सकते। इन्हीं सब कारणों की वजह से मैंने वो मकान और इलाका छोड़ दिया है और अब यहां रहने लगी हूं। यहां, मैंने किसी को नहीं बताया है कि मेरे पति, मेरे साथ नहीं रहते है। कोई पूछता है तो कह देती हूं कि वो बाहर काम करते है और बीच-बीच में आते है। इस बारे में यहां किसी को नहीं पता है, बस आपके सामने कह रही हूं।”

कभी-कभी किसी एक ज़ुबान से निकली एक खरी और विचारणीय बात ही आपको एक ऐसे किनारे पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां से आप समाज के किसी एक पहलू को पूरी सच्चाई और पारदर्शिता के साथ देख सकते है। इन्हीं सब बातों के बीच जो ख़त्म होकर भी ख़त्म नहीं हुई थी, खाना कब बन कर तैयार हुआ, पता ही नहीं चला। अक्षत, उनकी सभी बातों को ध्यान से सुन रहा था और उनकी बात के पीछे छिपे संदर्भों को तलाशने और समझने का प्रयास कर रहा था कि कैसे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अवचेतन रूप में उन सभी भेदभावपूर्ण व्यवस्थाओं को खामोशी पूर्वक स्वीकार करता चला जाता है, जिसे बाद में उन सभी का सचेत मन अपना का एक अटूट हिस्सा मान कर, उन सभी व्यवस्थाओं को वैधता भी प्रदान कर देता है कि उन्हें उन सभी व्यवस्थाओं के भेदभावपूर्ण स्वरूप का पता होते हुए भी पता नहीं चल पाता। शायद इसीलिए ऐसे तमाम सच व्यापक रूप में सामने होते हुए भी नज़र नहीं आते, इनका विरोध तो बहुत दूर की कौड़ी है।

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26-01-2024

Rahul Khandelwal 

Wednesday, January 24, 2024

क्या लफ्ज़ों में सबकुछ बयां करने की क्षमता होती है?


क्यों संवेदनाएं व्यक्त करने के लिए, खोजने से भी शब्द नहीं मिलते? ऐसी परिस्थितियों की ख्वाइश कोई नहीं करना चाहता कि संवेदनाएं (शोक) व्यक्त की जाएं। लेकिन क्या हम जीवन के इस सत्य से भाग सकते है कि इसका अंत निश्चित है?

तो जब कभी मेरा, ऐसे किसी भी मौके से वास्ता पड़ता है, मेरी कलम मेरा साथ कभी नहीं देती। मैं चाहकर भी कुछ लिख नहीं पाता। उन क्षणों में ऐसा लगता है कि मेरे पास बहुत कुछ लिखने-कहने को तो है, लेकिन उसे लिखा और कहा नहीं जा सकता। मानो मैंने सब कुछ लिख दिया हो और लिखकर मिटा दिया हो।

कभी-कभी लिखकर मिटा देना भी 'लिखना' जैसा होता है। संवेदनाओं से भरी भावनाएं व्यक्त करने के लिए हर बार लफ़्ज़ साथ दे, ऐसा ज़रूरी नहीं। तब मैं उन तमाम शख़्स से बस इतना ही कह पाता हूं कि मैं उनके लिए दुआ करता हूं कि उनसे जुड़े उनके अपनों की सभी यादें हमेशा उनके साथ रहें।

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24-01-2024

Rahul Khandelwal

Thursday, January 4, 2024

"आपकी मौजूदगी मुझे सत्य की ओर, और निकट जाने के लिए प्रेरित करती है मां।"


काश मेरे बस में उन सभी खूबसूरत लम्हों को भी कैद करने की क्षमता होती जिन्हें मैं कभी ख़ुद के द्वारा ख़ुद पर चढ़ाई गई तमाम बेबुनियाद परतों की वजह से, करने में असफल रहा। कृत्रिम और झूठ से बनी परतें जिनका आधार भीतरी मन के तत्वों की गवाही ना होकर बाहरी तत्त्व की अधिक होता हैं और जिसकी बनावट का परिणाम भीतरी और बाहरी तत्त्व, दोनों कारकों के बीच के संघर्ष से होकर पैदा होता है। ऐसे में आपका अवचेतन मन उन बाहरी तत्वों को कब और कैसे भीतरी मन पर हावी होने की इजाज़त देता है, आपको ख़बर भी नहीं होती। और चौखट पर दस्तक जिस वक्त होती है, तो बाहर आपका इंतज़ार सिर्फ़ “पश्चाताप” कर रहा होता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।

कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती है कि एक ही समय और स्थान में दो लोगों की उपस्थिति, उन्हें हर बार बातचीत करने का मौका नहीं देती। ऐसी स्थिति पैदा होने पर इंसान अभिव्यक्ति के तमाम तरीके तलाशता है, मैं लेखन का चुनाव करता हूं। आज आपसे कुछ कहने के लिए कर रहा हूं मां।

मां, आपने मुझे कोई धार्मिक किताब का सहारा लेते हुए सत्य–असत्य, सही–गलत के बीच फ़र्क करना नहीं सिखाया है, परवरिश की प्रक्रिया बिलकुल भी औपचारिक नहीं रही। इस सब के बावजूद भी आपसे ख़ूब सीखा है, बहुत कुछ अभी भी शेष है।

अपनों से दूर कोई नहीं होना चाहता है, मजबूरियां इंसान को विवश कर देती है। जब मैं आपसे दूर ना होकर आपके पास होता हूं तो इस अनुभूति से ख़ुद को घिरा हुआ पता हूं कि मेरा मन आपकी मौजूदगी से एक प्रकार की मदद हासिल कर रहा है कि मैं सच और झूठ में फ़र्क कर पाता हूं। आपकी मौजूदगी मुझे सत्य-असत्य के बीच के फ़र्क को समझने में मदद करती है मां। शायद इसीलिए लोग अपने माता-पिता की तस्वीर को अपने बहुत ही निकट रखते भी है। सकारात्मक रूप से देखें, तो एक प्रकार से प्रमाणीकरण और वैधता प्राप्त करने के लिए ऐसा किया जाता है।

जो हमें मन से प्रिय होते है, उनके साथ होने से आप अपने चारों ओर मौजूद संदेहों को मिटता हुआ देखते है और इस एहसास से भी ख़ुद को अवगत कराने में कामयाब हो पाते है कि वो एक-एक संदेह आपके बाहर नहीं, बल्कि भीतर मौजूद है। आप बाहर तलाशने की बजाए भीतर झांक रहे होते है; देखते है कि अब परतें अपना स्थान छोड़ रही है और भीतरी मन और भी अधिक स्पष्ट होता हुआ दिखाई पड़ता है।

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04-01-2024

Rahul Khandelwal 


In the picture, Maa-Papa looking at the sky. 🌸

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...