दो इंसानों के बीच भरोसे की भावना का जन्म यूं ही अनायास ही नहीं होता। मानवीय रिश्तें, गुज़रते हुए समय और एक लंबी प्रक्रिया के चलते गहराते चले जाते है। ‘भरोसा’, जब स्थायी रूप ले लेता है, तो आप अपनी निजी बातचीत साझा करने के लिए सामने वाले व्यक्ति से उसकी इजाज़त नहीं मांगते। एक समय के बाद ख़ुद ही आपको इस बात का एहसास हो जाता है कि अब आपके और सामने वाले व्यक्ति के बीच किसी भी प्रकार का कोई पर्दा नहीं है।
अक्षत भीतर वाले कमरे में बैठा पढ़ाई कर रहा था और दीदी किचन में खाना बना रही थी। उन दोनों के बीच कब और कैसे बातचीत शुरू हुई, मालूम नहीं। किसी बातचीत से निकली हुई कोई महत्वपूर्ण बात इंसान के ज़हन में रह जाती है, लेकिन कभी-कभी हम चाहते हुए भी बातचीत के सिरे को खोज नहीं पाते कि हम इसके अंतिम छोर तक कैसे पहुंचें। बातों के बीच अचानक ही उन्होंने अक्षत से कहा, “भैया, मैं और मेरे पति साथ में नहीं रहते है। मैं यहां दिल्ली में अपने दोनों बच्चों के साथ रहती हूं और वो अलग रहते है।”
(कुछ क्षण के लिए अक्षत सोचने लगा कि इन्होंने मुझसे शुरुआत में झूठ क्यों कहा, क्या वजह रही होगी? इसी सब के बीच उसे ध्यान हो आया कि बीच में एक दिन जब उसे बुखार था तब भी दीदी ने अपने यहां से यह बतलाकर दवा भिजवाई थी कि मेरे पति फार्मेसी में काम करते है, तो हमारे यहां दवा वगैरा रहती है। कई बार इंसान झूठ का सहारा इसीलिए भी लेता है क्योंकि वह समाज के सच को भली-भांति जानता है।)
वो आगे अपने पति से अलग रहने और इस बात को लोगों से छिपाने के कारण बताने लगी। उन्होंने कहा- “भैया, जहां मैं पहले किराए के मकान में रहती थी, वहां आस पास के लोगों को यह मालूम पड़ गया था कि मैं और मेरे पति साथ में नहीं रहते है। यह जानने के बाद उस मोहल्ले में रहने वाले लोगों ने मेरे साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। आप समझ सकते है कि एक महिला को अकेला समझकर समाज में रहने वाले लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते है। जब तक कोई महिला किसी पुरुष के अधीन नहीं है, तो उसकी स्वायत्तता को यह समाज स्वीकार नहीं करता है; तब तक, वह महिला एक वस्तु के समान है। और जैसे ही किसी पुरुष की छाया के नीचे उस महिला को लाकर खड़ा कर दिया जाता है, तो उसके अधिकार को भी उसी पुरुष के साथ जोड़ दिया जाता है और बाकी सबको यह बतला दिया जाता है कि अब आप सभी अपने अधिकार को इस एक महिला पर प्रयोग नहीं कर सकते। इन्हीं सब कारणों की वजह से मैंने वो मकान और इलाका छोड़ दिया है और अब यहां रहने लगी हूं। यहां, मैंने किसी को नहीं बताया है कि मेरे पति, मेरे साथ नहीं रहते है। कोई पूछता है तो कह देती हूं कि वो बाहर काम करते है और बीच-बीच में आते है। इस बारे में यहां किसी को नहीं पता है, बस आपके सामने कह रही हूं।”
कभी-कभी किसी एक ज़ुबान से निकली एक खरी और विचारणीय बात ही आपको एक ऐसे किनारे पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां से आप समाज के किसी एक पहलू को पूरी सच्चाई और पारदर्शिता के साथ देख सकते है। इन्हीं सब बातों के बीच जो ख़त्म होकर भी ख़त्म नहीं हुई थी, खाना कब बन कर तैयार हुआ, पता ही नहीं चला। अक्षत, उनकी सभी बातों को ध्यान से सुन रहा था और उनकी बात के पीछे छिपे संदर्भों को तलाशने और समझने का प्रयास कर रहा था कि कैसे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अवचेतन रूप में उन सभी भेदभावपूर्ण व्यवस्थाओं को खामोशी पूर्वक स्वीकार करता चला जाता है, जिसे बाद में उन सभी का सचेत मन अपना का एक अटूट हिस्सा मान कर, उन सभी व्यवस्थाओं को वैधता भी प्रदान कर देता है कि उन्हें उन सभी व्यवस्थाओं के भेदभावपूर्ण स्वरूप का पता होते हुए भी पता नहीं चल पाता। शायद इसीलिए ऐसे तमाम सच व्यापक रूप में सामने होते हुए भी नज़र नहीं आते, इनका विरोध तो बहुत दूर की कौड़ी है।
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26-01-2024
Rahul Khandelwal