Sunday, March 31, 2024

मासी का 'खेद', दादी का 'डर' है।


छुट्टी वाले दिन जब कभी मासी के घर जाना होता, तो तीनों पहर का खाना खा चुकने के बाद, अक्सर उनके पास बैठ जाया करता था। वे मुझे अपने अतीत से जुड़े पारिवारिक किस्से कहानियां सुनाया करती थी, जिसमें उनका सुख-दुःख, दोनों शामिल होते थे। साठ की उम्र पार कर चुकने के बाद, इंसान की बातचीत में 'मानवीय जीवन से जुड़ा दर्शन', बिना किसी की इजाज़त के स्थान ले लेता है। ऐसी स्थिति में आप कई बार, गहरा अर्थ लिए हुए कई-सी बातों का सामना करते है और सोचने पर विवश होते है। व्यसकों के पास बैठने से उन्हें भी यह महसूस होता है कि उनकी मन की तहों के नीचे दबी तमाम बातों को सुनने के लिए अभी भी कोई ना कोई उनके आस-पास मौजूद है। शायद वे भी राह देखते होंगे कि कब उन्हें सुनने वाला उनकी इन बातों को सुनने के लिए आएगा।

मेरे व्यवहार ने ऐसे लोगों की संगत को स्वतः ही स्वीकार किया है, जिनकी हर दूसरी बात अपने साथ, कोई ना कोई, इंसान के जीवन के लिए एक नया पाठ लिए होती है। हम सभी में कुछ न कुछ ऐसा भी होता है, जिसके चलते हम बिना जाने बूझे और पूर्व नियोजन के अलग-अलग आदतों का चयन करते है। यह प्रक्रिया इतनी ख़ामोशी से अपना काम करती है कि आपको भनक तक नहीं होती।

कुछ बातें हमें अक्सर याद रह जाया करती है, ख़ासतौर से वे सब, जो हमें मनुष्य के जीवन से जुड़े किसी आयाम पर सोचने को विवश करती है। मैं मासी की कही हुई वह बात कभी नहीं भूल सकता।

हर किसी के लिए दुःख की परिभाषाएं अलग-अलग हो सकती है। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आपका परिवेश किस तरह का है और आप किस तरह के वातावरण में पले-बढ़े है, जिसके चलते आपकी चेतना का निर्माण हुआ है और तत्पश्चात् घटनाएं आपको किसी एक तरीके से प्रभावित करती है; चूंकि हर किसी का परिवेश एक-सा नहीं होता है, इसीलिए सबकी चेतना भी एक-सी नहीं होती और फलस्वरूप इस सब का प्रभाव भी सब पर एक-सा नहीं पड़ता। शायद मासी के लिए वहीं सबसे बड़ा दुःख था, जिसे याद कर उस दिन उनकी आंखें नम हो गई थी और फिर उन्होंने कहा था कि "हमने अपने परिवार को बचाए रखने की बहुत कोशिश की, लेकिन आखिरकार वो बिखर ही गया। परिवार के टूट जाने का दुःख बहुत बड़ा होता है बेटा।" मैं उनकी आवाज़ में और नम आंखों में छिपे दर्द को महसूस कर सकता था, हां लेकिन उनके जितना नहीं। शायद वो दुःख उनके लिए सबसे बड़ा दुःख था।

अतीत में गुज़री यह बात और घटना आज फिर मुझ तक लौट आई है। होली की छुट्टियों में घर गया हुआ था। त्योहार समापन पर, लोगों का आपस में मिलना जुलना भी होता है; चूंकि करीबी रिश्तेदार आस पास ही रहते है, तो शाम को बैठक लग जाया करती है। कुछ अवसर शायद इसीलिए भी होते है कि वो लोगों को उनके रिश्ते याद दिला सकें।

हमें याद रखना चाहिए कि घर को घर बनाए रखने में घर के सभी सदस्यों का हाथ होता है; शादी के बाद कुछ सदस्यों के घर बदल जाया करते है, लेकिन वो अपनी सदस्यता कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वे उन सबके बीच अपने होने की भूमिका को कभी भूला नहीं पाते है। आपके प्रति ज़िम्मेदारी का भाव भी वही रखता है जो आपको अपना मानता है। जब बुआ घर आती है तो इस भूमिका का हिस्सा बन जाया करती है। दादी भी इस बात को समझती और जानती है, तो उन्हें बुआ के घर पर आने के बाद, उनसे एक प्रकार की उम्मीद भी बंधी रहती है कि अगर छोटी-मोटी बातों पर उनके साथ घर में कुछ भी अन्याय हुआ है, तो उनकी बेटी आकर उन्हें न्याय दिलाएगी। ये सब भी परिवारों के बने रहने की प्रक्रिया का एक हिस्सा होता है।

गांव में आज मुश्किल ही कोई परिवार बचा होगा जो एकजुट होकर रह रहा है, सभी संयुक्त परिवार एकल में तब्दील हो चुके है, उस दिन बुआ ने इसे होली वाले दिन याद भी दिलाया। दादी कभी नहीं चाहती थी कि उनका परिवार औरों की भांति बिखर जाए। इस सब के पीछे के कई सारे कारणों में सबसे बड़ा कारण यह भी है कि अपने समय में दादी के सामने यह एक प्रकार की चुनौती भी थी कि उन्होंने अपने मायके में रहकर तत्कालीन समाज को यह दिखलाने का प्रयास किया था कि एक अकेली औरत भी अपने परिवार को एक-साथ लेकर चल सकती है।

मेरे ज़हन में यह बात 'याद और चिंता' की तरह बनी रहती है, चिंता इसलिए कि क्या हम रुककर कभी सोचते भी है इस सब के बारे में? कुछ सामाजिक और पारिवारिक बदलाव ख़ामोशी से पृष्ठभूमि में रहकर अपना काम करते रहते है; आप उनके कारणों को एक प्रकार की समुद्र में होने वाली हरक़त समझकर उसके ऊपरी सतह पर होते बदलावों को ही देखते रहते है, और नकार देते है सतह के नीचे दूर गहराइयों में और भी तरह के होने वाले बदलावों और हरकतों को।

आज हम "टेकन फॉर ग्रांटेड" से व्याप्त वातावरण में रह रहे है, जहां हम अनजाने में (unknowingly) वे सब भी करते चले जा रहे है, जिसकी इजाज़त अभी तो हमें हमारी उम्र दे रही है क्योंकि हमारे जीवन का ऐतिहासिक काल अभी छोटा है। लेकिन जैसे-जैसे इंसान के जीवन के ऐतिहासिक काल की समय सीमा बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके जीवन में पछतावों का ढ़ेर लगता रहता है। तब उसे उसकी उम्र की गति भी आगे की ओर तेज़ बढ़ती हुई दिखालाई पड़ती है और उससे भी अधिक तेज़ दिखलाई पड़ता है उसे- "उसका पीछा करता हुआ, उसका ख़ुद का अपना इतिहास।"

ख़ैर। मासी, जिसे तमाम कोशिशों के बाद भी बचा नहीं सकी, दादी उसे खोना नहीं चाहती है। अब मासी के मन में खेद है, और दादी के, डर।

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31-03-2024

Rahul Khandelwal 


Note: तस्वीर दादी की है।

Friday, March 15, 2024

जसिंता केरकेट्टा के एक कथन पर टिप्पणी।


जसिंता केरकेट्टा लिखती है कि "मेरा गांव. मेरा देश. राष्ट्र प्रतीकों में फंसा रहता है. उसकी पीड़ा प्रतीकों से जुड़ी रहती है. पर देश लोगों के भीतर बसा होता है. वह एक दूसरे की परवाह करता है. एक दूसरे की पीड़ा समझता है. लंबी यात्रा से अपने समुदाय के बीच लौट आने पर जिस तरह वह परवाह करता है, लगता है देश बचा हुआ है."

इस पर मेरी टिप्पणी-

अगर मैं राष्ट्र और देश की कई परिभाषाओं में से एक इस परिभाषा को जस का तस मान लूं तो कितना सच मालूम पड़ता है इसे पढ़ने के बाद। कई बार लगता है हम 'सो कॉल्ड' ऐसे वर्ग का हिस्सा होने पर गर्व महसूस करते है जिसे पढ़ा लिखा और चिंतनशील व्यक्तियों के समूह का हिस्सा होने का टैग प्राप्त है। वहीं इसी वर्ग को गहराई से देखने पर मालूम पड़ता है कि इस वर्ग ने कितनी प्रकार की अलग–अलग 'वाद' से बुनी हुई चादरों से ख़ुद को ढ़का हुआ है और ये भीतर ही भीतर कितना विभाजित है। ऐसा नहीं है कि ये ख़ुद को इतना सहिष्णु बनाने में कामयाब रहा है कि इसे ठेस ही नहीं पहुंचती और ये आहत भी नहीं होता। नहीं। 'निर्णय और सत्य' जितने नज़दीक जान पड़ते है, उतने होते नही है। वो सतह पर ना होकर गहराई में निवास करते है।

राष्ट्र की और देश की चिंताओं में कितना अंतर है। कई बार राष्ट्र अपनी चिंताओं में, उस से जुड़े विमर्श में इतना व्यस्त हो जाता है कि देश से उसकी दूरी कब बनती चली जाती है कि उसे ख़ुद को ही मालूम नहीं पड़ता। राष्ट्र इतना और इस क़दर व्यस्त होता है उन विमर्शों में कि इसमें भाग लेने वाले लोगों का समूह (वर्ग) समझने लगता है कि देश सच में कितना विभाजित है। वहीं दूसरी तरफ़ जब मैं गांव, अपने समुदाय के लोगों के बीच पहुंचता हूं तो देश और वहां पर मौजूद लोग आदर सत्कार कर आपका स्वागत करते है। ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती हैं। उनकी चिंताओं का हिस्सा किसी वाद के ख़त्म हो जाने का डर ना होकर अपनी निजी ज़रूरतों को कैसे पूरा किया जाएं, अपनी चिंताओं से कैसे निदान पाया जाएं– यह अधिक होता है।

प्राचीन काल में बुद्ध ने, महावीर ने, अशोक ने; बाद में अगर मध्यकाल में देखें तो अमीर खुसरो ने, बाबर द्वारा दी गई हुमायूं को सलाह, अकबर ने; आधुनिक काल में गांधी ने और भी तमाम लोग, जिनका आमजन को जनभाषा में संदेश पहुंचाने पर कितना ज़ोर था। शायद इसके महत्व को हम उस तरह से नहीं समझ पाए है जितना की समझना चाहिए था। हम इस उम्मीद में कि जनसमूह के एक बहुत बड़े तबके को बदलना है, उनकी सोच में बदलाव लाना है लेकिन इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए हम उस जनसमूह के बड़े तबके के बीच बोली और समझी जाने वाली बोलचाल और जनभाषा का इस्तेमाल करने से हिचकिचाते है और इस प्रकार के विमर्शों के विस्तार को उन्हीं एक-से सौ-दो सौ लोगों तक सीमित कर उन्हीं के बीच दोहराते रहते है। आप इसे हिपोक्रिसी या विरोधाभास कुछ भी कह सकते है। शायद एक अंतर राष्ट्र और देश में यह भी है।
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Rahul Khandelwal
19-06-2023
 

Thursday, March 14, 2024

मधु कांकरिया जी की कहानी "जगह खाली है" पर एक टिप्पणी।


हंस कथा मासिक के मार्च अंक में प्रकाशित मधु कांकरिया जी की कहानी "जगह खाली है" को पढ़ा आज। कहानी को कहने और लिखने के जिस अंदाज़ को आप अख़्तियार करती है, ऐसा लगता है मानो इंसान ख़ुद ही ख़ुद से संवाद करता चला जा रहा है। कई जगहों पर ऐसे वाक्य पढ़ने को मिलते है जो मानवीय व्यवहार से जुड़े दर्शन और सच्चाई को आपके सामने लाकर रख देते है। कुछ घटनाओं के चलते जिनका प्रत्यक्ष रूप से कई बार हमारा कोई संबंध भी नहीं होता, उनमें फंसकर इंसान अनिच्छापूर्वक अपनी अवस्था को छोड़ दूसरी अवस्थाओं में प्रवेश करने पर मजबूर हो जाता है, तो मालूम पड़ता है कि ज़िंदगी का कितना थोड़ा भाग उसने अभी देखा है और उन तमाम दूसरी अवस्थाओं में दाख़िल होने के बाद वहां मौजूद समस्याओं और भेदभाव को देख वो ख़ुद को कितना असहाय महसूस करता है, इसके बारे में भी यह कहानी पढ़कर पता चलता है।

सत्ताधीशों द्वारा बनाए गए नियमों और कानूनों का दुरुपयोग कभी-कभी इंसान के मस्तिष्क की सोच और संभावनाओं से दूर निवास कर रहे एक प्रकार की साज़िश का रूप ग्रहण कर उसके खिलाफ किया जा सकता है, उनकी कहानी पढ़कर यह भी मालूम पड़ता है।

इंसान की स्मृतियां कभी उसका साथ नहीं छोड़ती है। आप स्मृतियों को लांघ कर कोसों दूर निकल आते है, एक लंबा सफ़र तय करने पर भी स्मृतियों के कुछ अवशेष आपकी परछाई बनकर आपका पीछा कभी नहीं छोड़ते, अंतिम सांस तक भी नहीं। इंसान के लिए गुज़रे हुए अतीत में कुछ घटनाओं की छांप और जड़े इतनी गहरी होती है कि वो गुज़र रहे (मौजूदा) समय में आपकी बिना इजाज़त लिए कभी-भी आपके वर्तमान के दरवाज़े पर दस्तक देती है, आपके मन और मस्तिष्क में प्रवेश करती है और आपकी तमाम कोशिशों के बाद भी बीतती नहीं। सिवाए इसके कि आप बिना किसी दूसरे विकल्प के, बेबस और मजबूर होकर उन अनुभूतियों को महसूस करने के लिए सिर्फ़ बाध्य हो सकते है, और कुछ नहीं। मुझे लगता है कि स्मृतियाँ, बारिश के बाद मिट्टी में जन्म लेने वाली अवांछित जड़ें जैसी होती है जिसके ना बीज बोयें जाते है, ना उनमें पानी दिया जाता है और ना खाद डाली जाती है। अतीत गुज़र जाता है लेकिन कुछ अधूरी रह गई ख्वाइशें, अनकिया को करने की इच्छाएं, इंसान को उसका शेष जीवन त्यागने की इजाज़त नहीं देती। लेकिन सवाल ये आ जाता है कि क्या हर किसी को यह मौका मिल पाता है? कहानी पढ़कर यह सब के बारे में भी पता लगता है।

आपने मनुष्य व्यवहार की अलग-अलग परतों को उतार, नीचे उसके भीतर, निवास कर रहे अलग-अलग मनुष्यों को दिखाने का प्रयास किया है जो प्रेम, सुख, दुःख, पीड़ा, पछतावा, शैतान से भरे ख्यालों और इन सब उलझनों को सुलझाने की जद्दोजहद में लगा रहता है।

शुक्रिया ये कहानी लिखने के लिए।

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14-03-2024

Rahul Khandelwal 

Thursday, March 7, 2024

क्या तुम्हें ख़ुद से डर नहीं लगता?



अब उन सभी की आंखों ने

आंसू बहाना बंद कर दिया है

यह सब कितना असामान्य है

कि हार रही मनुष्यता को देख

सभी चैन की नींद कैसे सो पाते है?


क्या तुम सो पाओगे चैन से

गर तुमको जान पड़े कि

कई माएं खो चुकी है

अपनी बेकसूर संतानों को?


और यह सब जान कर भी

अब तुम्हारी ख़ुद की आंखों ने भी

आंसू बहाना बंद कर दिया है।

जवाब दो, क्या ख़ुद में होते हुए

इस बदलाव को देखकर भी

तुम्हें ख़ुद से डर नहीं लगता?


क्या तुम्हें डर नहीं लगता यह सब सोच कर भी

कि ख़ुद के सामने तुम देख रहे हो

असामान्य को सामान्य में तब्दील होते हुए?


बोलो, इतने बेबस और बुज़दिल कैसे हुए तुम?

जवाब दो।

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07-03-24

Rahul Khandelwal

Click on this link to listen my poem on YouTube.

Published in "KRITYA Poetry Journals." Click on this link and scroll down to the bottom.


Note: This poem is dedicated to all the innocent children who have died so far in the Israel-Palestine conflict.


Saturday, March 2, 2024

स्मृतियाँ, बारिश के बाद मिट्टी में जन्म लेने वाली अवांछित जड़ें जैसी होती है।


"कभी-कभी ऐसा लगता है कि समय का एक बहुत बड़ा अंतराल गुज़रकर भी ठहरा हुआ है। क्या इंसान के लिए कहीं किसी दूर स्थित अतीत की स्मृतियों को लांघ पाना संभव है, क्या हम कभी-भी उभर पाते है उनसे?

ये सब अवचेतना की बनने की प्रक्रिया का कब हिस्सा बनता चला जाता है कि हमें मालूम भी नहीं पड़ता कि कब हमारी अंतरात्मा एक प्रकार से कोष का रूप धारण कर लेती है उन सभी स्मृतियों के लिए, जिनका हाथ हम ये मानकर बहुत पहले छोड़ आए थे कहीं कि उनकी छाया हमारा पीछा कभी नहीं करेंगी। और आपको उनके होने का एहसास तब होता है, जब वो सभी स्मृतियां आपके अवचेतन मन से निकलकर समय-समय पर चेतना का हिस्सा बन आपके जीवन के गुज़रते हुए समय की चौखट पर दस्तक देती है।

मुझे लगता है- स्मृतियाँ, बारिश के बाद मिट्टी में जन्म लेने वाली अवांछित जड़ें जैसी होती है जिसके ना बीज बोयें जाते है, ना उनमें पानी दिया जाता है और ना खाद डाली जाती है।"
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02-03-24
Rahul Khandelwal 

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...