चूंकि कुछ लोग अभी भी मौजूद है जो ख़ुद को कम से कम इस निगाह से तो खुशनसीब कह ही सकते है कि उनके पास उनके अपने एक पीढ़ी, दो पीढ़ी बड़े लोग परिवार के रूप में मौजूद है। मैंने देखा है कि हमसे बड़ी पीढ़ी के लोगों में धैर्य और इंतज़ार करने की क्षमता अधिक होती है। ऐसे कई-से लोग एक लंबा वक्त गुज़ार, इंतज़ार करते है उस घड़ी का जब उनके पास उन्हें सुनने के लिए उनका कोई अपना आता है।
अलग-अलग ढांचों (जैसे परिवार) और संस्थाओं में उपस्थित मनुष्यों के जीवन से जुड़ी उनकी अपनी कहानियां दूर से दिखलाई तो पड़ती है, लेकिन जैसे-जैसे आप उसके निकट जाते रहते है, उनकी वही कहानी आपको भरम मात्र जान पड़ती है। व्यवस्थाएं, इंसान को, उसके भेद खोलने की अनुमति हर किसी के सामने नहीं देती और ना ही उसमें आने वाले हर एक को दूसरे के सुख-दुख सुनने की क्षमता देती है; बजाए इसके, व्यवस्थाएं बांधती है मनुष्यों के सुख-दुख की परिभाषाएं और व्यवहार को, सुनिश्चित करती है खुद के द्वारा बनाए गए ढांचे और बना देती है उसमें आने वाले सभी लोगों को उनका आदी । शायद इसीलिए अगर कभी कोई उस रेखा से दाएं-बाएं हटकर कुछ कहना भी चाहे, तो कहने वाला और उसकी बात, दोनों ही सभी को अटपटी लगने लगती है। ढांचे मनुष्यों को सत्य का साथ देने की इजाज़त भी नहीं देते, वे उन्हें हित-अहित के चक्रव्यूह में फंसाकर रखते है।
शायद इसीलिए भी लोग इंतज़ार करते है किसी अपने का जो इन ढांचों में रहकर भी उनकी बात को सहजता के साथ सुनें और समझने का प्रयास भी करें; और साथ ही साथ ऐसी स्थिति में वे लोग यह भी सोचते है कि थोड़ी हिम्मत कर थोड़ा सच बोल सकें। जिस तरह वे इंतज़ार करते है, उसी तरह उनके भीतर का दुःख भी इंतजार करता है कि बातचीत के दौरान इनके शरीर से बाहर निकल इनके मन को थोड़ा हल्का कर सकें। व्यवस्थाओं में रहते हुए मनुष्य सच की गांठें नहीं खोलता और ना ही अपने दुःख की परतें उतारता है। ऐसा नहीं है कि वो अपनी असहमति को दर्ज नहीं करता, वो कभी-कभी विरोध भी जताता है, लेकिन वो जानता है कि उसके अस्तित्व की शर्त ही यही है कि ढांचों को कायम रखा जाएं।
जब उन्हें सुनने के लिए उनका अपना कोई उनके पास पहुंचता है तो झलकने लगता है उनकी आंखों से उनका दुःख और निकलने लगता है उनकी ज़बान से सच जिसे मन के तहकानों में दबाया हुआ था कहीं कई दिनों से। वो याद करने लगता है अपने अतीत को, मां-बाप को, अपने रिश्तों को जैसे याद किया था नवपाषाण काल में उस बूढ़े आदमी ने अपने पूर्वजों को और कहा था अपने समकालीन तरूणों से कि उनके समय की पीढ़ी आज के समय की पीढ़ी से बेहतर थी।
शायद ऐसे सभी लोग मजबूर है। मजबूर है उन सभी का साथ देने के लिए और उनके खिलाफ ना बोलने के लिए, जिनका साथ वे अपनी अंतरात्मा की इजाज़त से देना नहीं चाहते।
हां, वे मजबूर है। काश! वे मजबूर ना होते और कह देते वो सब कुछ, जो अनकहा है अब तक कि विदाई के वक्त एक भी पश्चाताप ना बचें, जो उन्हें मजबूर कर सकें इस लोक से ना जाने के लिए और रोक लें उन्हें यहीं किसी अन्य रूप में और बाधक बन जाएं उनकी पूर्ण विदाई में।
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21-04-2024
Rahul Khandelwal
Note: The picture is taken from internet.