Tuesday, April 23, 2024

विनती


हे संचालक! दृष्टि दें और ले चल।

कृत्रिमताओं से सत्यता की ओर।।


बाहरी-अप्राकृतिक लोक से,

आंतरिक दुनिया की ओर।

इस कदर,

कि मुलाकात हो सकें–

सत्य से, स्वत्व से;

ब्रह्मन् से और आत्मन् से।।


और हो सकें,

भीतरी दुनिया की मुलाकात भी,

प्रकृति से,

और उसके परे की दुनिया से।।

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23-04-2024

Rahul Khandelwal 

Sunday, April 21, 2024

उनकी उम्मीद व्यर्थ ना जाने दें। उन्हें सुनें, ताकि हो सकें उनकी पूर्ण विदाई।


चूंकि कुछ लोग अभी भी मौजूद है जो ख़ुद को कम से कम इस निगाह से तो खुशनसीब कह ही सकते है कि उनके पास उनके अपने एक पीढ़ी, दो पीढ़ी बड़े लोग परिवार के रूप में मौजूद है। मैंने देखा है कि हमसे बड़ी पीढ़ी के लोगों में धैर्य और इंतज़ार करने की क्षमता अधिक होती है। ऐसे कई-से लोग एक लंबा वक्त गुज़ार, इंतज़ार करते है उस घड़ी का जब उनके पास उन्हें सुनने के लिए उनका कोई अपना आता है।

अलग-अलग ढांचों (जैसे परिवार) और संस्थाओं में उपस्थित मनुष्यों के जीवन से जुड़ी उनकी अपनी कहानियां दूर से दिखलाई तो पड़ती है, लेकिन जैसे-जैसे आप उसके निकट जाते रहते है, उनकी वही कहानी आपको भरम मात्र जान पड़ती है। व्यवस्थाएं, इंसान को, उसके भेद खोलने की अनुमति हर किसी के सामने नहीं देती और ना ही उसमें आने वाले हर एक को दूसरे के सुख-दुख सुनने की क्षमता देती है; बजाए इसके, व्यवस्थाएं बांधती है मनुष्यों के सुख-दुख की परिभाषाएं और व्यवहार को, सुनिश्चित करती है खुद के द्वारा बनाए गए ढांचे और बना देती है उसमें आने वाले सभी लोगों को उनका आदी । शायद इसीलिए अगर कभी कोई उस रेखा से दाएं-बाएं हटकर कुछ कहना भी चाहे, तो कहने वाला और उसकी बात, दोनों ही सभी को अटपटी लगने लगती है। ढांचे मनुष्यों को सत्य का साथ देने की इजाज़त भी नहीं देते, वे उन्हें हित-अहित के चक्रव्यूह में फंसाकर रखते है।

शायद इसीलिए भी लोग इंतज़ार करते है किसी अपने का जो इन ढांचों में रहकर भी उनकी बात को सहजता के साथ सुनें और समझने का प्रयास भी करें; और साथ ही साथ ऐसी स्थिति में वे लोग यह भी सोचते है कि थोड़ी हिम्मत कर थोड़ा सच बोल सकें। जिस तरह वे इंतज़ार करते है, उसी तरह उनके भीतर का दुःख भी इंतजार करता है कि बातचीत के दौरान इनके शरीर से बाहर निकल इनके मन को थोड़ा हल्का कर सकें। व्यवस्थाओं में रहते हुए मनुष्य सच की गांठें नहीं खोलता और ना ही अपने दुःख की परतें उतारता है। ऐसा नहीं है कि वो अपनी असहमति को दर्ज नहीं करता, वो कभी-कभी विरोध भी जताता है, लेकिन वो जानता है कि उसके अस्तित्व की शर्त ही यही है कि ढांचों को कायम रखा जाएं।

जब उन्हें सुनने के लिए उनका अपना कोई उनके पास पहुंचता है तो झलकने लगता है उनकी आंखों से उनका दुःख और निकलने लगता है उनकी ज़बान से सच जिसे मन के तहकानों में दबाया हुआ था कहीं कई दिनों से। वो याद करने लगता है अपने अतीत को, मां-बाप को, अपने रिश्तों को जैसे याद किया था नवपाषाण काल में उस बूढ़े आदमी ने अपने पूर्वजों को और कहा था अपने समकालीन तरूणों से कि उनके समय की पीढ़ी आज के समय की पीढ़ी से बेहतर थी।

शायद ऐसे सभी लोग मजबूर है। मजबूर है उन सभी का साथ देने के लिए और उनके खिलाफ ना बोलने के लिए, जिनका साथ वे अपनी अंतरात्मा की इजाज़त से देना नहीं चाहते।

हां, वे मजबूर है। काश! वे मजबूर ना होते और कह देते वो सब कुछ, जो अनकहा है अब तक कि विदाई के वक्त एक भी पश्चाताप ना बचें, जो उन्हें मजबूर कर सकें इस लोक से ना जाने के लिए और रोक लें उन्हें यहीं किसी अन्य रूप में और बाधक बन जाएं उनकी पूर्ण विदाई में।

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21-04-2024

Rahul Khandelwal


Note: The picture is taken from internet.

Wednesday, April 10, 2024

अन्वेषक

 


परत-दर-परत तार रहा हूं चादरें

ताकि गहराईयों में तलाश सकूं

प्रक्रियाओं के पीछे छिपी वास्तविकताओं को

कि देख सकूं वो सूक्ष्म परिभाषाएं

और जान सकूं

और भी बेहतर तरीके से

फ़र्क को

सही और गलत के बीच

कि थोड़ा और अधिक इंसान बन सकूं


परत-दर-परत, उतार रहा हूं चादरें

कि सुलझा सकूं

इन मानव निर्मित गुत्थियों को

जिसका अस्तित्व प्राकृतिक नहीं

बल्कि इतिहास के किसी दौर में

छोड़ आया था मनुष्य इन्हें कहीं 

जो तबसे चली आ रही है अबतक

कई सभ्यताओं से गुज़रकर


परत-दर-परत, उतार रहा हूं चादरें

कि परख सकूं

सच और झूठ के ज्ञान को

और कर सकूं दोनों के बीच अंतर

जिसने ओढ़ लिए है अब

कई-से कृत्रिम आवरण


हे संचालक! दृष्टि दें और ले चल,

कृत्रिमताओं से सत्यता की ओर।।

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10-04-2024

Rahul Khandelwal

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Saturday, April 6, 2024

क्या आपके विचार आपके ख़ुद के असल विचार है? कहीं वे सब प्रभावशाली संस्कृति से प्रभावित तो नहीं?

 


"सामाज के अलग-अलग वर्गों में तरह-तरह के इंसानों के व्यवहार और उनकी अवस्थाओं के पीछे छिपे संदर्भों को, सामाजिक पायदान में निचले स्थान पर आने वाला सामाजिक वर्ग, पहचानने और देखने में नाकामयाब रहा है या स्थापित मान्यताओं, ढांचों को और अधिक सुदृढ़ और इनसे जुड़े हुए अपने निजी हित को सुरक्षित बनाएं रखने में समाज के कुछ वर्ग हमेशा से उससे जुड़ी हुई विचारधाराओं को इस कदर और इस प्रकार प्रचारित एवं प्रसारित करते रहे है कि सभी को वो कृत्रिम ढांचे असल नज़र आने लगे, जिसके फलस्वरूप वो तथाकथित निचला वर्ग उन सभी संरचनाओं को पहचानने और देखने में नाकामयाब रहा और स्वीकार करता रहा वो सब, जो उसका अपना नहीं था?"

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05-04-2024

Rahul Khandelwal 

Tuesday, April 2, 2024

इंसान को अपने भीतर “ख़ुद और मैं” के अस्तित्व को ज़रूर बचाएं रखना चाहिए।


इंसान को अपने भीतर “ख़ुद और मैं” के अस्तित्व को ज़रूर बचाएं रखना चाहिए। इतिहास गवाही देता है इस बात की कि जब-जब महान लोगों के समक्ष “मैं” के अस्तित्व पर तमाम प्रकार के आक्रमण का प्रयास किया गया है या समझौता करने का प्रस्ताव रखा गया है, तो वो उनके साथ चाहकर भी समझौता नहीं कर पाए है।

और शायद यही वो बात भी है जो “सुख और चैन” की परिभाषा को अलग भी करती है। बाहरी जीवन में चल रहे युद्ध के साथ-साथ एक युद्ध निरंतर मनुष्य के मन के भीतर भी चलता है। बस चिंतन-मनन के चलते सही निर्णय लेने की ज़िम्मेदारी हम में ज़िंदा रहें, यही दुआ है। अपना ख़्याल रखें दोस्त। तुम्हें ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास जिस किसी भी परिभाषा में हो, वो तुम्हें तुम्हारे मन के भीतर चल रही जद्दोजहद से लड़ने की हिम्मत और ताकत दें।

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15-03-2024

Rahul Khandelwal 


आप अपने जीवन में होने वाली गतिविधियों के कितने हिस्से को पूर्ण रूप से स्वयं निर्धारित करते है?


तारीखों में संस्कृतियों का व्याप्त होना और समय के उपकरणों के अनुसार संस्कृतियों से जुड़े हुए उत्सवों को मनाना, जिसे ख़ुद कभी अतीत में मनुष्यों ने ही बनाया, गढ़ा और तय किया था, मनुष्यों की गतिविधियों को अपने अनुसार संचालित करता है। किसी विशेष समुदाय के मोहल्लों और घरों के पास से गुज़रती सड़कों पर लोगों और वाहनों का होना और ना होना, कभी-कभार उनका अपना निजी चुनाव नहीं होता, कुछ और भी कारक होते है जो उन्हें निर्धारित कर रहे होते है। क्या इन सबसे होने वाले बदलावों को आप अपने आस-पास देख पाते है? आप अपने जीवन में होने वाली गतिविधियों के कितने हिस्से को पूर्ण रूप से स्वयं निर्धारित करते है? गौर करिएगा।
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28-03-2024
Rahul Khandelwal 

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...