Monday, September 23, 2024

पुरानी दिल्ली! हर बार बुलाती है।

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यूं तो कुछ शहरों को छोटी उम्र में देखा ही है जिसकी फेहरिस्त में दिल्ली अपनी कुछ लोकप्रिय जगहों के साथ शामिल है लेकिन एक व्यस्क की उम्र पार करने के बाद पुरानी दिल्ली का पहला दौरा मैंने 2017 में किया था, तभी से मानो इस शहर ने बार-बार पुकार लगाकर बुलाया है। गत सात वर्षों में मैंने करीब-करीब दस से बारह बार इस शहर को नज़दीक से देखा है। बहुत-सी मौजूदा चीजों में से यहां बनी इमारतें अधिक आकर्षित करती है। कई-सी इमारतें घरों का सूचक होती है जिसमें खुली, लंबी और चौड़ी बालकनियां आपको देखने को मिल जायेंगी। चूंकि कई से मकान और इमारतें सौ से भी अधिक साल पुरानी है, इसीलिए आपको इनकी बनावट में अपने अंतिम दिनों के मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला से जुड़े हुए कुछ अवशेषों की झलक दिखलाई पड़ती है। विभाजन से पहले भारतीय समाज से जुड़े कई सारे किस्से कहानियों जिनमें तत्कालीन गांव और शहरों में बने मोहल्लों, गली-गलियारों, बाज़ार से जुड़े विवरणों को अलग-अलग दृष्टिकोणों से कई सारे इतिहासकारों, हिंदी और अंग्रेज़ी के लेखकों ने अपने लेखन में जगह दी है। इन सभी को पढ़ते वक्त हमारा दिमाग कल्पना की सहायता से जिन तस्वीरों को गढ़कर एक छोटी दुनिया का निर्माण करता है, उसी के कई सारे हिस्से परछाई के रूप में यहां हुबहू दिखलाई पड़ते है, कहीं कहीं पर आधुनिकता के रंगों के साथ।

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गुज़रते हुए समय के साथ बीत रही दुनिया, बहुत-से अवशेष, बीत चुके समय से ग्रहण कर आगे की ओर अपने साथ चल रही होती है। उदाहरण के लिए अगर कहे- तो हम देखते है कि चावड़ी बाज़ार और पुरानी दिल्ली में बने हुए बड़े बाज़ारों में एक बड़ा श्रमिक वर्ग सामान ढोने के काम में लगा हुआ है जिसके लिए वो हाथ-गाड़ी का इस्तेमाल करते है। उनसे बात करने पर पता चलता है कि यहां पर ये काम इसी तरीके से पिछले कई सौ सालों से हो रहा है। इनमें इस एक समानता के अलावा एक सामान्य तत्व यह भी है कि ये सभी श्रमिक हाथ-गाड़ी को चलाते वक्त एक ही प्रकार से ऊंची आवाज़ में सामने वाले को हटने के लिए संदेश देते है- "आगे बढ़ते रहिए भैय्या", "चलते रहो भाई", जो इन बाज़ारो को कई से बाज़ार से अलग बनाता है।

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लोहे का काम और उस से बने उपकरण जिनका इस्तेमाल खेतों में किसान द्वारा होता है, पीतल से बनी वस्तुएं जिन्हें पूजा और धार्मिक संबंधित कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है, स्कूल और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पुरानी और नई किताबें, धार्मिक पुस्तक, शादी के लिए कार्ड, हार्डवेयर संबंधित आइटम्स- इन सभी की बड़ी दुकानें इन बाज़ारों में मौजूद है। और साथ में खाने-पीने के लिए बीच-बीच में आती सैकड़ों छोटी-बड़ी दुकानें जिनमें कुछ स्थाई तो कई ऐसी है जो लेन में अलग-अलग नुक्कड़ों पर ही बनी हुई है। कुछ इतनी छोटी है लेकिन उतनी ही मशहूर और पुरानी कि शादी के लिए शॉपिंग करने आया हुआ पूरा परिवार खरीदारी कर इन दुकानों पर बने अलग-अलग स्वादिष्ट पकवानों का ज़ायका लिए बिना वापस घर को नहीं लौटना चाहता।

पुराने शहर अपने अनोखे किस्म की बनावट के साथ, वहां के मोहल्ले और उसकी गालियां; उनमें मौजूद बाज़ार, वहां की हलचल और दूर-दूर से खरीदारी करने आए हुए लोगों के चेहरों पर गहराई से उभर आती उत्सुकता जिसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है और जो आम समय और दैनिक चर्याओं में अमल में ला रहे उनके व्यवहार से भिन्न होती है। ऐसी यात्राओं से जुड़े दौरे विषयों के प्रति लोगों की समझ को बेहतर विकसित करने में मदद करते है। हम कई-से नए दृष्टिकोणों से इन्हें देख सकते है, लेकिन फिर भी कुछ तो ऐसा रह ही जाता है जो इतिहास की पुरानी समय रेखा से गुज़रता हुआ मौजूदा समय में भी रिसता हुआ चला आ रहा है। हां! अब तक भी।

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23-09-2024

Rahul Khandelwal 

Sunday, September 22, 2024

दुविधाएं उसकी, जन्मदाता कौन?



ढांचों की गिरफ्त में मनुष्य

नहीं सोच पा रहा

परे कुछ भी इसके


गर ख़्याल में भी

देता है पनाह चाह को वह

तो वैधता का सवाल

आता है उपज

सामने उसके बार-बार

जो कहीं बहुत दूर से

हां अतीत काल से ही

आ रहा है चलता हुआ

बीहड़ रास्तों से

करता हुआ दमन

इच्छाएं 'अन्यों' की


संरचनाओं में बंधा हुआ

वह जानता है-

'ढांचें'- जो वैधता प्राप्त करने का स्त्रोत है

नहीं स्वीकारेगा

गर वो उन्हें जो

धूल में मिला दी जायेगी

पहचान उसकी

और मान्यताओं का तमगा

दे दिया जायेगा

किसी अनुयायी को


वो जो नहीं जानता

ना ही पा रहा है देख-

दीवार के पीछे छिपे

उन संस्थानों के समूहों को

और नकाब ओढ़े हुए

उन चेहरों को

बुन रहे है जो

सदियों से

राजनीति के जाले

ध्यान रख परिप्रेक्ष्य का

अपनी ही रंगों की ऊन से

कर रहे है तैयार

और भी मज़बूत ढांचें

उधेड़-उधेड़ कर

'अन्यों' की पसंद की रंगीन ऊन के जाले


वो जो नहीं जानता

ना ही पा रहा है समझ-

कि बुनाई के बाद

क्यूं नहीं अंट रहा है

जाल उसके शरीर में?

क्या तुम कर पाते हो

संबद्ध स्थापित अपरिचित से

इस शर्त के साथ

कि बेहतर बोलना होगा तुम्हें 

उसके साथ, उसी की ज़बान में?

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22-09-2024

Rahul Khandelwal


Notes: 1. The picture used in this blog is taken from internet.

Click on this link to listen my literary piece on YouTube.

Monday, September 16, 2024

सच-झूठ और रात-दिन


होते गर सभी दिन, सिर्फ़ शामें और रातें।

तो होता आदमी भी इंसान अधिक।।

 

होती और अधिक क्षमता भी, आत्मबोध के एहसास की

झूठ की परतों से ख़ुद को, ढकते भी हम कम।।

 

ज़बान कहती वो सच, जो भीतर था कहीं दबा

डरी जो सिर्फ किरणों से है, नहीं चांदनी से अब तक।।

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16-09-2024

Rahul Khandelwal 


Note: The portrait of a painting, "True and False," painted by Jeffrey Gougeon-Fine Art America, used in this piece is taken from the internet.

Monday, September 9, 2024

Sometimes the own interpretations made by the proponent of an idea or a thought implicitly include the notion of categorization appearing as standard one to others, but is it not that the same might have been the imposition on them? Think!


"The process of multiplicatively interpreting the ideas or thoughts being subjective in nature may give rise to a certain level enough where some of the ideas along with their own interpretations become part of hegemonic dominant ideologies and meta-narratives, and in this whole procedure the corollary of which might be the development of the imposing notions of categorization into superiority and inferiority already imbibed in and attached to the contestation of various lines of thinking, out of which those thoughts having former tendencies have more chances of becoming the framework of a standardized model to measure and compare things for the remaining ideas having latter tendencies."

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09-09-2024

Rahul Khandelwal 

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...