Saturday, November 30, 2024

समय


फिसल रहा है रेत निरंतर

ना वापस उठने के लिए कभी

लेकिन कण उड़कर उसके आ जाते है तुम्हारे दर तक

जैसे उग आती है स्मृतियों की अवांछित जड़े बिन बुलाएं


बहुमूल्य है ये इतिहास के कण

कोई कीमत नहीं है इनकी

संजो के रख लेना इन्हें भी सदा के लिए

जैसे रखते हो 'विश्वास और उम्मीद' को तुम ज़िंदा रोज़

ख़त्म होती उसकी सांसों से बचाकर।

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30.11.2024

Rahul Khandelwal 

Thursday, November 7, 2024

खेद


खामोश और बेज़ुबाँ आँखें

बोलती है ज़्यादा उनकी

अनुभव और परिपक्वता के संकेत है जो।

बातचीत के दौरान

कहा एक दिन उन्होंने—

“साथ बिताया गया इतिहास और साझी परंपरा

रिश्तों का होता है आधार

तय होती है जिससे उम्र उसकी।”


सुनकर उनके कुछ ये शब्द

याद हो आई मुझे मांसी की

मांसी की?

अअअ….कम उनकी, ज़्यादा उनकी बातों की

वैसे, अक्सर मुझे याद रह जाते है

शब्द अधिक, लोगों से

कहा था उन्होंने—

“टूटते हुए परिवार को बचाने की कई कोशिशें की

लेकिन नहीं पाई बचा उसे, जिसका ग़म है मुझे सदा।”


मैंने समझा और किया ख़ुद भी अनुभव

खामियाजा ये नहीं कि विराम रिश्तों पर लगा

बल्कि है ये—

कि निर्मित हो चुके इतिहास से

किसी को कर दिया गया है अलग

हमेशा, हमेशा के लिए

जिसने साझा किया था दूसरे से

स्व को, अपनत्व को।

भरोसा रख उस पर

बांटी थी भावनाएं 

और किए थे साझा

अंतर्मन के कुछ हिस्से साथ उसके

जिन्हें नहीं छुआ था कभी

किसी और ने उसके सिवा।


बस खेद है इसी का

हां! सिर्फ इसी का

रिश्तों पर लगाम का नहीं, हरगिज़ नहीं

और तो और ये सब

पीछे छोड़ गया साथ उसके

अंतहीन और अविनाशी डर को भी।

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07-11-2024

Rahul Khandelwal


Note: The picture used in this piece is taken from the internet.

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...