Friday, May 23, 2025

अन्वेषी


(1)

एक दशक होने को है कि दीपक अभी जला नहीं

आकृति को पहचान पाने में अक्षम हूँ अब भी


हर दिन रोशनी की तलाश में निकलता हूँ 

इस उम्मीद में कि आत्मन् में ही ब्रह्मन् है


चारों ओर से थोप दी गई परतें

कुछ पर्दें और नकाब आते है हाथ


मेरा आत्म झूठ बोलकर

इन्हें सत्य के रूप में स्वीकारना नहीं चाहता


बाहरी और आंतरिक के बीच निरंतर संघर्षों में

अंतर्विरोधों का ढ़ेर-सा लगता चला जा रहा है


समय के अलग-अलग पड़ावों पर

कुछ अनुभूतियां आंखों से झर जाती है कभी-कभार 


इतना भर काफी है यह यकीन दिलाने के लिए

कि क्षमता मृत नहीं बल्कि हम सब में शेष है अब भी


हे विधाता! गुहार सुन और दृष्टि दे—

“दृष्टीय के बीच अदृष्टीय को देखने की,

आत्मन् में निवास करते ब्रह्मन को खोजने की”

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23.05.2025

Rahul Khandelwal


(2)

अन्वेषी हूँ

मानवीय परिस्थितियों की सही समझ का

धर्म-अधर्म के ज्ञान का

सत्य की खोज का


मनुष्य के अस्तित्व के उद्देश्यों का

उसके व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारकों का

उसकी चेतना की निर्मिती की समझ का

अन्वेषी हूँ

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08.06.25

Rahul Khandelwal

Wednesday, May 7, 2025

प्रार्थना


सिर्फ़ शब्दों में नहीं

वजूद के रूप में बने रहना चाहता हूँ सदा

विचारों से लिपटे अनगिनत शब्दों में


स्मृतियों में इस धरती पर

नित्य ही सर्वत्र रहें अस्तित्व उनका

बस इन्हीं की अमरता चाहिए

इसी दुआ के साथ झुकाता हूं शीश

ब्रह्मन् के आगे

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18-04-2025

Rahul Khandelwal

Impalpable

I wish I could write the history of the inner lives of humans’ conditions— hidden motivations and deep-seated intentions. Life appears outsi...