(1)
एक दशक होने को है कि दीपक अभी जला नहीं
आकृति को पहचान पाने में अक्षम हूँ अब भी
हर दिन रोशनी की तलाश में निकलता हूँ
इस उम्मीद में कि आत्मन् में ही ब्रह्मन् है
चारों ओर से थोप दी गई परतें
कुछ पर्दें और नकाब आते है हाथ
मेरा आत्म झूठ बोलकर
इन्हें सत्य के रूप में स्वीकारना नहीं चाहता
बाहरी और आंतरिक के बीच निरंतर संघर्षों में
अंतर्विरोधों का ढ़ेर-सा लगता चला जा रहा है
समय के अलग-अलग पड़ावों पर
कुछ अनुभूतियां आंखों से झर जाती है कभी-कभार
इतना भर काफी है यह यकीन दिलाने के लिए
कि क्षमता मृत नहीं बल्कि हम सब में शेष है अब भी
हे विधाता! गुहार सुन और दृष्टि दे—
“दृष्टीय के बीच अदृष्टीय को देखने की,
आत्मन् में निवास करते ब्रह्मन को खोजने की”
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23.05.2025
Rahul Khandelwal
(2)
अन्वेषी हूँ
मानवीय परिस्थितियों की सही समझ का
धर्म-अधर्म के ज्ञान का
सत्य की खोज का
मनुष्य के अस्तित्व के उद्देश्यों का
उसके व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारकों का
उसकी चेतना की निर्मिती की समझ का
अन्वेषी हूँ
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08.06.25
Rahul Khandelwal