उस भाषा की तलाश में, जो अवगत कराएं संपूर्ण सच से। क्या कभी कामयाब (ख़त्म) हो पाएगी ये तलाश?
कुछ जुदाई कमबख़्त
नसीब ही बदल देती है
वो और तुम देखते हो
सिर्फ़ ऊपरी सतह को
नहीं जान सका कोई भी
आंतरिक संघर्ष को
कलम-दवात का रास्ता भी
इतना आसान है कहां?
उसकी कलम से निकले हर लफ्ज़ की पहली शर्त-
उसके ज़हन से निकली कराह होती है
जो दिखा
उसी को तुमने स्वीकार लिया अंतिम सच
हे प्रिय! भाषाओं में नहीं शेष अब सामर्थ
कि पूर्ण सत्य जान सकें
क्या तुम सुन सकते हो वो ज़बान
और क्या पढ़ सकते हो वो भाषा
जिसकी तहों तले दबी है मुकम्मल वास्तविकताएं?
आओ अब लौट चलें
उसी अतीत काल की ओर
जहां भाव देख दूसरों के
मनुष्य पहचानता था उनके हाल
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20-07-2024
Rahul Khandelwal
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